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________________ . जीवन की पोथी है, वे शायद अनैतिकता को बड़ी कुशलता के साथ करते हैं। जिनमें समझ कम है, वे अनैतिक आचरण बहुत कम मात्रा में करेंगे, कम सीमा में करेंगे और उसको छिपा नहीं पाएंगे। अनैतिक आचरण करना और उसका पता न लगने देना, यह कौशल तो है ही निश्चित, पर यह कौशल वही बरत सकता है जिसमें बुद्धि और तर्क का विकास पर्याप्त मात्रा में हो चुका है। वही सही को गलत और गलत को सही साबित कर सकता है। जानना एक बात है और जानने के बाद बुराई से बचना बिलकुल दूसरी बात है। जिसमें राग-द्वेष, आसक्ति, मूर्छा प्रबल होती है, वह बुराई को जान लेगा, पर उससे बच नहीं पाएगा। उत्तराध्ययन सूत्र का एक प्रसंग है। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का मिलन अपने पूर्वजन्म के बन्धु चित्र से हुआ। चक्रवर्ती ने कहा-मित्र ! तुम मेरे पास आ जाओ, इस विशाल सुख-सामग्री का भोग करो। जो जीवन में चाहिए उससे अधिक उपलब्ध है। यहां आओ, मेरे साथ उसका उपभोग करो। चित्र ने सुना और कहा---'राजन् ! यह मत मानना कि मैं कोई भिखारी हूं। मैंने सुख-सुविधा के साधनों का त्याग किया है । जब उन्हें त्याग ही दिया तो फिर भोगने की बात ही नहीं आती। मैंने मूर्खता से नहीं त्यागा है, समझबूझ कर त्यागा है, क्योंकि मुझे यह स्पष्ट भान हो गया कि जीवन नश्वर है, पदार्थ अशाश्वत है। व्यक्ति को अपने कर्म स्वयं भोगने होते हैं। बन्धु-बांधव केवल पदार्थ के परिभोग में ही सहभागी बनते हैं, कर्म के भोग को नहीं बंटाते । किए गए कर्मों को स्वयं को ही भोगना पड़ता है।' 'राजन् ! ये सारे गीत बिलापतुल्य हैं, नृत्य विडंबनाएं हैं, आभूषण भार हैं और सारी कामनाएं दुःखद हैं। मैंने इस सचाई को जान लिया है, इसीलिए तुम्हारे निमंत्रण को स्वीकार नहीं कर सकता।' यह भी एक ज्ञान है। ब्रह्मदत्त कहता है---'मित्र ! तुम जो कह रहे हो, वह सही है । मैं जानता हूं, पर मोह का आवरण इतना सघन है कि जानता हुआ भी छोड़ नहीं सकता। तुम्हारा मार्ग भिन्न है और मेरा मार्ग भिन्न है।' दोनों मिले अवश्य, पर मिलकर भी अलग हो गए, क्योंकि दोनों का ज्ञान अलग-अलग था । एक का ज्ञान मूर्छा को तोड़ने में उद्यत था और दूसरे का ज्ञान मूर्छा को सघन बनाने वाला था । तथ्यों को जानने में दोनों समान थे। दोनों जानते थे, या सब जानते हैं, जो जन्मता है वह अवश्य मरता है। मरण से सब डरते हैं, पर यह भय छूटता नहीं। ज्ञान मूर्छा से मुक्त नहीं है । बह शुद्ध ज्ञान नहीं है, इसलिए जानते हुए भी नहीं जान पा रहे हैं। ज्ञान वह होता है जिससे मूर्छा का आवरण टूटता है और सचाई को ठीक वैसे ही जानते हैं जैसे जानना चाहिए। ऐसा ज्ञान बचाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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