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शक्ति-विकास और शक्ति-प्रदर्शन
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हो जाती है। जब तक शक्ति का सही नियोजन नहीं होता, तब तक वह शक्ति उन्माद् पैदा करती है, विनाश लाती है। शक्ति का सही नियोजन हो सके, यह वह अवस्था है । यदि सही नियोजन होता है तो बहुत सारे काम संपन्न हो जाते हैं । चाहे पुरुष हो या स्त्री, शक्ति का दुरुपयोग हुए बिना नहीं रहता । जो प्रेक्षा का मर्म समझ लेते हैं, वे अपनी शक्ति का सही उपयोग कर सकते हैं।
प्रेक्षा का एक अर्थ है निरुपाधिक देखना । आदमी शुद्ध दृष्टि से कहां देख पाता है ? शुद्ध चेतनावान् को देखना कठिन होता है।
एक योगी अपनी साधिका बहिन से मिलने उसके घर गए । उस समय वह स्नान कर रही थी। वह निर्वस्त्रा थी। योगी ने दरवाजा खोला, और तत्काल बन्द कर दिया । स्नान करने के पश्चात् बहिन से मिले । बहिन बोली-आपने दरवाजा खोला और लोट कैसे गए ? योगी ने कहा-उस समय तुम निर्वस्त्र होकर स्नान कर रही थी । ऐसी स्थिति में मैं वहां कैसे ठहरता ? साधिका बोली-आप पहुंचे हुए संत हैं । आप में अभी तक स्त्रीपुरुष का भेद विद्यमान है ? आप पहुंचे ही नहीं अभी तक।
यह अन्तर मिटाना कठिन है। आंख के गोलक में जो देखने की शक्ति है, उससे रश्मियां निकलती हैं । उसको हमारे भावों की रश्मियां घेर लेती हैं । भाव दो ही प्रकार के होते हैं-प्रिय या अप्रिय । इस स्थिति में कोरा प्रकाश नहीं निकलता । घेरे का प्रकाश पहले निकलता है, फिर मूल प्रकाश । इसलिए हम प्रत्येक पदार्थ को उस घेरे के प्रकाश के आलोक में देखते हैं। हमें मूल पदार्थ अयथार्थ रूप में ही दीख पड़ता है। दग-शक्ति का विकास कठिन कर्म है।
___ जीवन के चौथे अध्याय में बहुत जागरूक रहने की आवश्यकता है। स्वयं को जागृत रहना है और अभिभावकों को जागृत रहना है । इससे ही शक्ति का सही नियोजन हो सकेगा । इस संदर्भ में एक बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि इकतीस वर्ष की अवस्था से पूर्व एक बार शिविर अवश्य कर लेना चाहिए, जिससे कि शक्ति का सही उपयोग सीखा जा सके, जीवन को अधिक आनन्दमय और सुखमय बनाया जा सके । जो व्यक्ति केवल पाशविक शक्ति के प्रदर्शन में लगे हुए हैं, वे कभी आगे बढ़ नहीं पायेंगे । जो अपनी आत्मशक्ति को बढ़ा पाएंगे, वे पिछड़ेंगे नहीं, वे प्रकाशपुञ्ज बन कर सबका मार्गदर्शन करेंगे । मैं नहीं चाहता कि साधक कमजोर हो । वह शक्ति संपन्न हो और शक्ति का प्रदर्शन सही दिशा में करने वाला हो।
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