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अध्यात्म की चतुष्पदी
जीवन की दो दिशाएं हैं -भौतिकवाद और आत्मवाद । अध्यात्मवादी भी इस अध्यात्मवाद या अध्यात्म को यथार्थरूप से समझ नहीं पा रहे हैं। उन्होंने कुछ ऐसी अस्वाभाविक मान्यताएं या धारणाएं बना ली हैं, जिनसे कुछ मिलता नहीं । 'अपने अस्तित्व का बोध', 'आत्मा का बोध'--ये शब्द दूर तक हमारा साथ नहीं देते । जब तक हम चेतन मस्तिष्क से काम लेते हैं, तब तक पहुंचने की बात ही प्राप्य नहीं होती।
अध्यात्म को हमें भिन्न दृष्टिकोण से समझना होगा । जब तक व्यक्ति का पदार्थ के प्रति सम्यक् दृष्टिकोण नहीं बनता, तब तक कोई भी आध्यात्मिक नहीं हो सकता । पदार्थ के प्रति दृष्टिकोण सम्यक् होना चाहिए । आदमी पदार्थ को नित्य और शाश्वत मानकर ही व्यवहार कर रहा है । वह भले ही शब्दों में उसे अशाश्वत कह दे, अनित्य कह दे किन्तु अन्तर्वृत्ति में उसे नित्यता की अनुभूति हो रही है। इसलिए कोई भी पदार्थ इधर-उधर होता है तो उसे कष्ट होता है । कष्ट इसलिए होता है कि उसने मान लिया की पदार्थ मुझसे अलग नहीं है। जब तक पदार्थ के प्रति यह दृष्टिकोण बना रहता है, तब तक अध्यात्म चेतना जागती नहीं। वह पदार्थ में शरण खोजता है। वह पदार्थ के बिना अपने आपको असहाय महसूस करता है । यह सारी पदार्थ के प्रति शरण की भावना का द्योतक है । पदार्थ पास में है तो सब कुछ है। पदार्थ नहीं है तो कुछ भी नहीं है । जब तक यह भ्रांति नहीं टूटती तब तक कोई आध्यात्मिक नहीं हो सकता । आदमी शरीर के साथ अभिन्नता का अनुभव किए बैठा है । जब तक पुद्गल और चेतन की भिन्न अनुभूति नहीं होती, तब तक अध्यात्म में प्रवेश की बात ही प्राप्त नहीं होती है । मैं पदार्थ से परे हूं, मैं अकेला हूं-यह अनुभूति अध्यात्म तक ले जाती है ।
अध्यात्म के इस चतुष्पदी के ये चार चरण हैं--- १. अनित्य अनुप्रेक्षा २. अशरण अनुप्रेक्षा ३. अन्यत्व अनुप्रेक्षा ४. एकत्व अनुप्रेक्षा
जिसमें अनित्यता, अशरणता, अन्यत्व और एकत्व की चेतना जाग जाती है वह आध्यात्मिक होता है और जिसमें यह चेतना की चतुष्टयी जागृत नहीं होती वह भौतिक होता है। केवल शब्दों के दोहराने से कोई अध्यात्मवादी
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