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________________ १५२ जीवन की पोथी बात नहीं, गालियां ही दी, पीटा तो नहीं।' 'कोई पीटेगा तो क्या करोगे?' 'सोचंगा, पीटा ही तो है, हाथ-पैर तो नहीं तोड़े !' 'यदि हाथ-पैर तोड़ दिए तो ? 'सोचूंगा, हाथ-पैर ही तोड़े, प्राण-वियोजन तो नहीं किया !' 'यदि कोई मारने का प्रयत्न करेगा तो?' 'सोचूंगा, कोई बात नहीं। प्राण ही तो लूट रहा है, धर्म तो नहीं लूटा !' यह है भावनात्मक चिंतन । जो सदा भावनात्मक चिंतन करता है वह अपने आनन्द को सुरक्षित रख लेता है। किंतु यह कठिन कर्म है। जब विवेक का चक्षु खुल जाता है, तभी ऐसा होना सभव है। आदमी सामान्यतः यही सोचता है - 'शठे शाठ्यं', एक गाली के बदले दस गालियां और ईंट का जवाब पत्थर से । इस दिशा में चिंतन जाता ही नहीं कि गाली न देने का कितना महत्त्व है ! ईंट का जवाब पत्थर से न देकर ईंट के प्रहार को समभाव से सहने में कितना आनन्द है ! पर आदमी का चितन सदा निषेधात्मक होता है । इसका कारण है सम्यक् दृष्टिकोण का अभाव। इसका तात्पर्य है विवेक चेतना का अजागरण । __ तीन प्रकार के प्रकाश हैं। केवल सूर्य का प्रकाश ही कार्यकर नहीं होता, केवल आंख का प्रकाश ही कार्यकर नहीं होता। सूर्य है और आंख का प्रकाश नहीं है तो देखा नहीं जा सकता। आंख है और यदि सूर्य का प्रकाश नहीं है तो भी नहीं देखा जा सकता। सूर्य का प्रकाश है, आंख का प्रकाश भी है और यदि विवेक का प्रकाश नहीं है तो सही-सही नहीं देखा जा सकता । तीनों प्रकाश चाहिए। यह त्रिपदी है, त्रिपथगा है। यह प्रकाश की त्रिवेणी है । इन तीनों का योग होता है तब आनन्द का जीवन जीया जा सकता है । जिस व्यक्ति में प्रकाश है, आनन्द है, वही अपनी शक्ति का सही उपयोग कर सकता है। जिसमें प्रकाश नहीं है, उस व्यक्ति के सारे आयाम गलत होंगे। वह शक्ति उबारने वाली नहीं, मारने वाली होगी। जीवन की चौथी अवस्था (३१ से ४० वर्ष) शक्ति प्रदर्शन की अवस्था है। माता-पिता या अभिभावक का परम कर्तव्य है कि वे इस अवस्था में पहुंचने वाले अपने अधीनस्थ व्यक्ति पर ध्यान दें। शक्ति-प्रदर्शन की दिशा सही है या नहीं, यह ध्यान दें । यह अवस्था शक्ति-विकास काचरम बिंदु है । जब शक्ति चरम बिंदु पर पहुंचती है तब उसमें अपार सामर्थ्य आ जाता है । पानी जब भाप बनता है तब उसकी शक्ति का अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता है। वायु में सामान्य शक्ति है। वात्याचक्र में अपार शक्ति नियोजित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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