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________________ शक्ति-विकास और शक्ति-प्रदर्शन १४९ अहंकार, मूर्खता, अभिनिवेश-ये कुछ ऐसे कारण हैं जो शक्ति के प्रदर्शन को गलत बना देते हैं। शक्ति गलत नहीं होती। उसका प्रयोग गलत हो सकता है। यह विवेक बहुत आवश्यक है। जीवन की इस चौथी अवस्था में यह विवेक जागृत रहता है तो शक्ति का बहुत बड़ा उपयोग हो सकता है । बड़ा काम बीस वर्ष की अवस्था में या सत्तर वर्ष की अवस्था में नहीं किया जा सकता। किन्तु वह किया जा सकता है जीवन की इस तुरीय अवस्था में तीस से चालीस वर्ष की अवस्था में। शक्ति के प्रयोग की दो दिशाएं हैं । एक ध्वंसात्मक दिशा और दूसरी है सृजनात्मक दिशा। शक्ति का प्रयोग यदि ध्वंस में, उत्पीड़न में लग जाता है तो वह शक्ति कहर ढा देती है। ऐसा व्यक्ति निरन्तर बुरा सोचता है, बुरे विकल्पों से घिरा रहता है। जो व्यक्ति शक्ति का प्रयोग सृजन में करता है, उसका चिंतन स्वस्थ और कल्याणकारी होता है। विध्वंस में शक्ति लगाने वाला भक्षक है और सृजन में शक्ति लगाने वाला रक्षक है। यहां एक प्रश्न उठता है कि दूसरों की रक्षा कौन करता है ? जो अपनी रक्षा नहीं कर सकता, वह दूसरों की रक्षा कभी नहीं कर सकता। जो आत्म-रक्षक है, वही पर-रक्षक होता है। आत्मा की रक्षा करना अपनी रक्षा करना है। आत्मरक्षा का अर्थ है-अपने आचार को सुरक्षित रखना, अपनी इन्द्रियों और मन को सुरक्षित रखना, अपनी वृत्तियों को नियत्रित रखना । आत्म-रक्षक कभी दूसरों को नहीं सताएगा, कष्ट नहीं देगा। स्वयं कष्ट सह लेगा, पर दूसरों को पीड़ित नहीं करेगा। जिसमें अध्यात्म की चेतना जाग जाती है, वह कभी दूसरों को कष्ट नहीं दे सकता। कुछ पशु भी ऐसे होते हैं, जिनमें आत्मभाव जाग जाता है, वे भी कभी दूसरों को नहीं सताते । __ ज्ञाताधर्मकथा का एक उदाहरण है । भयंकर जंगल । आग लगने की संभावना । एक यूथपति ने अपने बृहद् हस्ति-परिवार की रक्षा के लिए जंगल में निस्तृण स्थान बनाया। वह बहुत बड़ा था। उसमें हजारों पशु निरापद रह सकते थे। वहां आग का त्रास संभव नहीं था। एक दिन वास्तव में दावानल सुलग गया। जंगल में हाहाकार मचा और सभी पशु उस निरापद स्थान की ओर दौड़ पड़े। यूथपति भी अपने पूरे परिवार के साथ वहां आ पहुंचा । स्थान खचाखच भर गया। यूथपति ने खुजली करने के लिए अपने एक पैर को ऊपर उठाया। उस रिक्त स्थान पर खरगोश आकर बैठ गया। यूथपति ने अपने खुजली के पैर को नीचे रखना चाहा। उसने देखा, एक खरगोश बैठा है। उसका मन दयार्द्र हुआ और उसने अपना पर अधर में ही रोक दिया। उसने सोचा, मैं कष्ट झेल लूं, पर दूसरों को कष्ट न दूं। जब यह चेतना जाग जाती है तब दूसरों को कष्ट देने की बात समाप्त हो जाती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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