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शक्ति-विकास और शक्ति-प्रदर्शन
जीवन की चौथी अवस्था का कालमान है इकतीस से चालीस वर्ष का । इस अवस्था में शक्ति का विकास होता है, शक्ति-प्रदर्शन का अवसर मिलता है। बत्तीस वर्ष का व्यक्ति तरुण माना जाता है। जहां कहीं शक्तिप्रदर्शन का प्रसंग आता है वहां बत्तीस वर्ष के तरुण की चर्चा मिलेगी। इस अवस्था में शक्ति अपने पूर्ण विकास पर होती है और आदमी 'समर्थो बलं दर्शयितम्'-अपनी शक्ति प्रदर्शित करने में समर्थ होता है । शक्ति का विकास और संचय जरूरी होता है, पर शक्ति का प्रदर्शन किस अवस्था में कितना आवश्यक है, यह एक विमर्श का बिन्दु है। उसका प्रदर्शन किया जाए या नहीं ? किया जाए तो किस दिशा में किया जाए, यह एक प्रश्न है।
आज शक्ति का प्रदर्शन भिन्न-भिन्न दिशाओं में हो रहा है। कुश्ती में, खेल में शक्ति का प्रदर्शन होता है। यह शक्ति का प्रदर्शन समाज-सम्मत है। डाकू, चोर, हत्यारा भी शक्ति का प्रदर्शन करता है, पर यह समाजसम्मत नहीं है । डाकू और चोर में भी शक्ति अपेक्षित है : अन्यथा वह डाका नहीं डाल सकता, चोरी नहीं कर सकता। दूसरे की हत्या करने में भी शक्ति चाहिए । कमजोर व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता।
शक्ति का वह प्रदर्शन जिसमें समाज का हित हो, कल्याण हो, रुचि का संवर्धन हो, सम्मत होता है। जिसके द्वारा समाज का हित और कल्याण नहीं सधता, व्यक्ति का भी हित-कल्याण नहीं सधता, वह शक्ति का प्रदर्शन करता है तो सर्वत्र हानि ही होती है।
__ दो-चार अफीमची एक गांव में आ पहुंचे। रात्रिवास वहीं किया। उस गांव में मच्छर बहुत थे। मच्छरों ने उन्हें बहुत परेशान किया। उनके पास बन्दूकें थीं । एक तो नशे में धुत थे, दूसरे में उनको शस्त्र का नशा था । उन्होंने सोचा कि मच्छरों से मोर्चा लेना है। गन्दा नाला बह रहा था। मच्छर मंडरा रहे थे । सबने मोर्चा संभाला। एक ने अपने साथी के गले पर बैठे मच्छर को मारने के लिए गोली दागी। वह गोली साथी को लगी । मच्छर भी मर गया और साथी भी चल बसा। दूसरे साथी ने कहा-कैसा रहा मोर्चा ? हारजीत क्या रही ? वह बोला-मच्छर का एक साथी भी मर गया और अपना भी एक साथी मारा गया। बाजी बराबर रही। न कोई हारा और न कोई जीता ।
मूर्ख आदमी अपनी शक्ति का प्रदर्शन गलत ढंग से ही करता है ।
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