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जीवन की पोथी
शादी नहीं करूंगा और अपने बेटे को भी यही सीख दूंगा कि बेटे ! शादी कभी मत करना।
कितना विरोधाभास ! हमें इन सारे विरोधाभासों से बचकर जीवन की एक निश्चित प्रणाली बनानी होगी। जिस व्यक्ति को काम-संयम का जीवन जीना है, उसे आहार-संयम का जीवन जीना होगा। यदि ऐसा नहीं होता है तो ठीक वही बात होगी, शादी नहीं करूंगा और बेटे को भी वही सीख दूंगा।
__ आहार-संयम व्यक्तित्व विकास का महत्त्वपूर्ण घटक है, किन्तु आदमी इसके प्रति पूर्ण उदासीन है। स्वास्थ्य का और भोजन का गहरा संबंध है।
सन् १९८४ का चातुर्मास जोधपुर में था। हम दूर पहाड़ियों पर शोच के लिए जाते । लौटते समय एक घाटी पार कर रहे थे। उतरते समय आचार्यश्री थोड़े रुके और बोले–महाप्रज्ञजी ? यदि पहले से ही हम आहार के विषय में सावचेत हो जाते तो पूरे शतायु हो सकते थे। पहले यह ध्यान नहीं दिया। ध्यान देते भी कैसे, जब इस विषय का पूरा ज्ञान भी नहीं था। आचार्यश्री जब ३८-४० के हुए और मैं ३४-३५ में पहुंचा, तब पूरा ध्यान दिया। इससे भी हमें लाभ मिला। यदि हम उस समय सावधान नहीं होते तो जीवन की बहुत सारी शक्तियां ऐसे ही खर्च हो जातीं। जो काम आज तक हमने किया है या कर रहे हैं, जो चिन्तन दिया है, दे रहे हैं, वह कभी नहीं होता।
शक्ति या तो पेट में खपेगी या मस्तिष्क में खपेगी। पेटू व्यक्ति की सारी ऊर्जा पदार्थ को पचाने में व्यय हो जाती है और जो चिन्तन करता है, ध्यान करता है, कम खाता है, उसकी शक्ति मस्तिष्क के काम आती है।
विक्रम संवत् २००५ से हमारे धर्मसंघ में आहार विषयक मोड़ आया है। आज ४७-४८ वर्ष हो रहे हैं, इन वर्षों में स्वाध्याय, ध्यान और चिन्तन में बहुत विकास हुआ है।
दो दृष्टिकोण हैं। पहला स्वास्थ्य का दृष्टिकोण और दूसरा है काम संयम का दृष्टिकोण। दोनों का गहरा सम्बन्ध है। एक है ज्ञानेन्द्रिय और दूसरी है कर्मेन्द्रिय । हम कर्मेन्द्रिय पर संयम तभी कर सकते हैं, जब ज्ञानेन्द्रिय पर हमारा संयम सध जाता है। आज के वैज्ञानिकों और प्राचीन तन्त्राचार्यों ने इस विषय पर बहुत ऊहापोह प्रस्तुत किया है और महत्त्वपूर्ण रहस्य उद्घाटित किए हैं । उस चर्चा को समझने वाले विरल ही हो सकते हैं, उसको नहीं छू रहा हूं। इतना ही यहां पर्याप्त है कि भगवान् महावीर ने जहां-जहां ब्रह्मचर्य का प्रतिपादन किया वहां-वहां, उससे पूर्व, आहार संयम का प्रतिपादन किया । उत्तराध्ययन आगम के बतीसवें अध्ययन में इसकी लम्बी चर्चा है । भगवान् कहते हैं-बहुत गरिष्ठ भोजन, सरस रसों का भोग उन्माद पैदा
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