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________________ काम-शक्ति का विकास जिसमें शक्ति होती है। वही आदमी महान होता है जो अपनी शक्ति के भरोसे जीता है। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक ह्य म ने इन दोनों मनोवैज्ञानिकों- फ्रायड और एड्लर के कथन का प्रतिवाद किया। उसने कहा---सेक्स एनर्जी और शक्ति संचय-ये दोनों जीवन की मूल प्रेरणाएं नहीं हैं। जीवन की मूल प्रेरणा हैव्यक्तित्व का विकास । प्रत्येक व्यक्ति व्यक्तित्व के विकास के लिए जीवनभर प्रयत्न करता रहता है, इसलिए जीवन की प्रेरणा यही है। उस व्यक्ति के जीवन की पूरी ऊर्जा उसी दिशा में प्रवाहित होती है। जो व्यक्ति जीवन में सफलता चाहता है वह काम (Sex) को भी गौण कर देता है, शक्ति का विकास और नियोजन भी करता है, पर उसका मूल उद्देश्य रहता हैव्यक्तित्व का विकास । वह उसमें बाधा नहीं चाहता। व्यक्तित्व-विकास में अनेक विघ्न हैं। ऐसा जीवन किसी का नहीं होता कि जीवन में बाधा न आए। निर्विघ्न जीवन जीने वाला हजारों वर्षों में कोई एक जनमता होगा। हर आदमी के जीवन में उतार-चढ़ाव आते हैं, विघ्न आते हैं । जो अपनी ऊर्जा का अपव्यय नहीं करता, अधिक व्यय नहीं करता, वह विकास की दिशा में सतत बढ़ता रहता है। वह बाधाओं को चीरकर सफलता का वरण कर लेता है। जो व्यक्ति अपने जीवन की ऊर्जा का अपव्यय करता है, अधिक व्यय करता है, वह पग-पग पर अटकता जाता है, कमजोर हो जाता है, पर ठिठुर जाते हैं। उसका जीवन शत्ति शून्य हो जाता है। उसका जीना हराम हो जाता है। बाधाओं का पार तभी पाया जा सकता है, जब ऊर्जा की प्रबलता होती है। ऊर्जा की प्रबलता काम-संयम से प्राप्त होती है। काम-सेवन से ऊर्जा का अतिरिक्त क्षरण होता है। ज्ञानेन्द्रियां भी पांच हैं और कर्मेन्द्रियां भी पाच हैं। प्रत्येक इन्द्रिय की एक-एक कर्मेन्द्रिय है। जिह्वा ज्ञानेन्द्रिय है। उसकी कर्मेन्द्रिय है जननेन्द्रिय । जीभ का और जननेन्द्रिय का बहुत गहरा संबंध है। जिसे काम-शक्ति पर संयम करना है, उसे जीभ पर संयम करना होगा। जो इस सम्बन्ध को नहीं जानते, वे जीवन में कष्ट पाते हैं । कोई भी व्यक्ति जननेन्द्रिय का सीधा संयमन नहीं कर सकता । उस पर संयम करने के लिए जीभ पर संयम करना होगा। आदमी स्वादिष्ट और गरिष्ठ भोजन करता भी जाए और कामवासना पर नियंत्रण की बात सोचता रहे, तो यह विरोधाभासी चिंतन होगा, विरोधी प्रवृत्ति होगी। बाप ने बेटे से कहा-बेटे ! जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अनुभव बताता हूं कि मैंने शादी करके बड़ी भूल की। तुम भूलचूक कर भी शादी मत करना। बेटे ने कहा-पिताजी ! आपकी शिक्षा को मैं स्वीकार करता हूं। मैं कभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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