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________________ १४. जीवन की पोथी वृत्ति का उच्छेद न करना, यानी जिसका जो हिस्सा है उसको उतना प्राप्त करा देना । जिसका जितना पाने का अधिकार है, न्याय है, उसे कम करना आजीविका का विच्छेद करना है। यह अहिंसा धर्म का अतिक्रमण है। अहिंसक ऐसा कभी नहीं कर सकता। इस सूत्र का विकास तभी संभव है जब मस्तिष्क का परिवर्तन हो, नए मस्तिष्क का निर्माण हो । जिसका मस्तिष्क बदल गया, उसका संबंध यथार्थ के आधार पर होगा। ___ सम्बन्ध की दो भूमिकाएं हैं-स्वार्थपरक सम्बन्ध और यथार्थपरक सम्बन्ध । वर्तमान के समाज में स्वार्थपरक सम्बन्ध चल रहा है। यथार्थ है ही नहीं या न्यून है । यथार्थपरक सम्बन्ध का आधार है सचाई । जब मिल मालिक को उस सचाई का अवबोध हो जाता है यो वह कहेगा, इतना मेरा नहीं है, मैं नहीं लूंगा। मजदूर कहेगा, इतना मेरा नहीं है, मैं नहीं लूंगा। दोनों का सम्बन्ध यथार्थपरक होगा । यह तभी संभव है जब मस्तिष्क बदले । प्रत्येक व्यक्ति ने अच्छी आकांक्षा संजो रखी है । वह चाहता है समाज अच्छा बने, व्यक्ति अच्छा बने । माता-पिता चाहते हैं, लड़का अच्छा बने । लड़का चाहता है, माता-पिता अच्छे हों । अच्छे की आकांक्षा सबको है । इसकी पूर्ति नए मस्तिष्क से ही हो सकती है। पर मस्तिस्क को बदलने की तैयारी किसी की नही है। एक मित्र ने दूसरे मित्र से पूछा, अरे ! तुम सीमेंट का कारखाना लगाना चाहते थे, क्या हुआ उसका ? वह बोला-कारखाना खड़ा करने के लिए सीमेंट ही नहीं मिली तो कारखाना कैसे लगता ? मस्तिष्क के परिष्कार के लिए ध्यान आवश्यक है। जब हम स्वयं को जानना-देखना प्रारम्भ करते हैं, तब जमी हुई धारणाएं बदलनी प्रारम्भ हो जाती हैं। जिनके आधार पर जीवन चलता है, उन मान्यताओं में परिवर्तन आने लगता है । जब धारणाओं में परिवर्तन होगा तो मानवीय सम्बन्धों में भी परिवर्तन आएगा। महत्त्वपूर्ण प्रश्न है धारणा को बदलने का, तोड़ने का । भीतर धारणाओं का अंबार-सा लगा हुआ है । इनको एक-एक कर बाहर निकालना होगा । धारणाएं तब टूटती हैं जब प्रतिबद्धताएं एक-एक कर बिखर जाती हैं। जितनी गहराई से हम भीतर देखेंगे, धारणाएं उतनी ही कमजोर होता जाएंगी। जितनी धारणाओं का भार आदमी ढोता है, उतना एक गधा भी नहीं ढोता । धारणाएं बड़ी विचित्र होती हैं। आचार्यश्री ने एक गांव से प्रस्थान किया। सामने से एक विधवा बहिन आ रही थी। साथ वाली एक बहिन चिच्ला उठी, हटो, हटो, अपशकुन मत करो। वह विधेषा बेचारी सकपका गई । एक ओर हट गई । आचार्यश्री ने पूछा- क्या हो गया ? वह बहिन बोली-आप विहार कर रहे हैं । सामने वाली महिला विधवा है । यह अपशकुन माना जाता है। विहार में अपशकुन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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