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________________ नए मस्तिष्क का निर्माण १३९ है वनस्पति जगत् । हर जीव वनस्पति से निकलता है । यह अक्षय कोष है। इसे पारिभाषिक शब्दावली में 'निगोद' कहा जाता है । प्रत्येक प्राणी का, चाहे वह अल्प विकसित हो या पूर्ण विकसित, सब का आदि-स्रोत है निगोद। प्रत्येक प्राणी में यह वनस्पति का मस्तिष्क विद्यमान है । जैन दर्शन की भाषा में इसे 'ओघ संज्ञा' कहा जाता है । म मन मनोविज्ञान इसे 'कलेक्टिव माइंड' कहता है । दो प्रकार के माइन्ड हैं । एक है पर्सनल माइन्ड और दूसरा है कलेक्टिव माइन्ड । ओघ संज्ञा प्राणीमात्र में मिलती है। वनस्पति से लेकर मनुष्य वन जाने तक यह संज्ञा बनी रहती है। यह पशु मस्तिष्क है। यह आज बहुत सक्रिय है। इसीलिए समाज में अपराध, अन्याय, अत्याचार, अतिक्रमण आदि का बोलबाला है। नए समाज के निर्माण के लिए मस्तिष्क की दूसरी परत को खोलना होगा। पशु मस्तिष्क से लोभ पैदा होता है। लोभ स्वार्थ को पैदा करता है । स्वार्थ से क्रूरता और क्रूरता से अपराधी मनोवृत्ति पनपती है। इससे नशे की आदत बनती है। अपराधी नशा इसीलिए करता है कि वह अपने आपको विस्मृत कर शांति का अनुभव कर सके। लोभ मूल प्रवृत्ति है । वह मस्तिष्क की ऐसी परत है जो चिरकाल से हमारे साथ चली आ रही है। मस्तिष्क को बदलने का अर्थ है लोभ की बृत्ति को परिष्कृत करना । ध्यान इसका सशक्त माध्यम बनता है। लोभ सभी अपराधों की जड़ है । जब जड़ हरी-भरी रहती है तो शाखाएं, प्रशाखाएं, टहनियां, फूल और पत्ते सब हरे-भरे रहते हैं । जैसा मूल होगा, वैसा ही फूल होगा, वैसा ही फल होगा। मूल का ही विस्तार होता है। संसार में केवल एक ही मूल बीमारी है-लोभ । शेष इसी के परिवार के सदस्य हैं । हमारा मस्तिष्क लोभ से प्रतिबद्ध है । सारा चिंतन उसी की परिक्रमा करता है। प्रत्येक व्यक्ति सबसे पहले अपने स्वार्थ की सीमा तक ही सोचता है। स्वार्थ सधता है तो वह कार्य अच्छा है। स्वार्थ विघटित होता है तो वह कार्य बुरा है। ___ आज वर्ग-संघर्ष का बोलवाला है। इसका मूल है लोभ । मिल मालिक मजदूरों को कम वेतन देकर अधिक श्रम चाहता है और मजदूर कम श्रम कर अधिक वेतन लेना चाहता है। यह संघर्ष है। क्या इन दोनों की मनोवृत्ति को बदला जा सकता है ? यदि यह परिवर्तन हो जाता तो न मार्क्सवाद आता और न साम्यवाद जन्म लेता और न हिंसक क्रांतियां समयसमय पर उभरतीं। किन्तु मिल मालिक और मजदूर-दोनों में वह संघर्ष ही चल रहा है । प्रश्न होता है क्या इसका समाधान संभव है ? भगवान् महावीर ने इसके समाधान का एक सूत्र दिया था कि किसी की आजीविका का विच्छेद मत करो। यह पापपूर्ण प्रवृत्ति है। किसी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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