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जीवन की पोथी के अवयव पूर्ण विकसित नहीं होते, तब तक वह बच्चा पूरा काम नहीं कर सकता । जब उन घटकों का पूर्ण विकास हो जाता है, तब वह बच्चा कार्य को पूरा करने में सक्षम हो जाता है ।
इसलिए हम यह एकांततः नहीं मान सकते कि बच्चा कोरी पाटी जैसा है, पूर्ण स्पष्ट और पवित्र है, उसमें अच्छाइयां या बुराइयां नहीं हैं।
अच्छा वातावरण उपलब्ध करा देने पर भी कुछ बच्चे ऐसे हैं, जो कभी अच्छे नहीं बनते और कितना ही खराब वातावरण दे देने पर भी कुछ बच्चे बुरे नहीं बनते । इसका मूल कारण है उनकी अपनी विशेषता, अपने संस्कार-बीज । उपादान और निमित्त दोनों साथ-साथ काम करते हैं । स्वयं की विशेषता है उपादान और सामाजिक वातावरण है निमित्त। दोनों का योग होने पर कार्य निष्पन्न होता है। .
एक आदमी सौ वर्ष की आयु जीता है । उसके जीवन को दस भागों में बांटा गया। दस-दस वर्ष का एक-एक भाग होगा। वे दस अवस्थाएं हैं- १. बाला
६. हायनी २. क्रीड़ा
७. प्रपंचा ३. मंदा
८. प्रारधारा ४. बला
९. मृन्मुखी ५. प्रज्ञा
१०. शायनी पहली पांच अवस्थाएं जीवन के पूर्वाद्ध की हैं और शेष अवस्थाएं जीवन के उत्तरार्द्ध की हैं । दस अवस्थाओं में बंधा हुआ सौ वर्षों का जीवन ।
पहली अवस्था है बाला । यह बचपन की अवस्था है । इसका कालमान दस वर्ष का है । इस अवस्था में जो स्थितियां बनती हैं, प्राचीन आचार्यों ने उनका सुन्दर विश्लेषण किया है। वे कहते हैं --'न तत्थ सुखदुक्खाणं बहुं जाणंति बाला' - बालक में सुख-दुःख का अनुभव करने की क्षमता होती है, किन्तु बालक न अधिक सुख का संवेदन करता है और न अधिक दुःख का संवेदन करता है । यह सुख-दुःख के संवेदन से परे की अवस्था होती है। दो-चार वर्ष का बच्चा एक मिनट में रोने लग जाता है और दूसरे ही क्षण हंसने लग जाता है । चोट लगी, रोने लग जाता है। मिठाई दी, तत्काल हंसने लग जाता है। बड़ा आदमी ऐसा नहीं कर सकता । बच्चे में सुख-दुःख का ज्ञान कम होता है। वह बहुत कम वेदन करता है। यह अवस्था-निर्माण की अवस्था है, विकास की अवस्था है। सारे बीज इस अवस्था में अंकुरित होने लग जाते हैं।
प्रेक्षाध्यान करने वाले व्यक्ति को प्रेक्षा-निरीक्षण करना सीखना है । उसे अतीत में जाना है, अतीत का अवलोकन करना है। ध्यान का अभ्यास करने वाले प्रतिक्रमण करें, पीछे लोटें। कल सूर्योदय से सूर्यास्त तक पहुंचें।
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