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________________ १२० जीवन की पोथी निर्माण नहीं हो सकेगा। इस अर्थ में प्रेक्षाध्यान व्यक्ति-निर्माण की प्रक्रिया आप समाज को छोड़कर जीने की कल्पना नहीं कर सकते । आप व्यापारी हैं, कपड़े का व्यापार करते हैं, कपड़ा कहां से आया ? रोटी खाते हैं, अनाज कहां से आया ? दूध पीते हैं, दूध कहां से आया ? पानी पीते हैं, पानी कहां से आया ? उसके पीछे कितनी प्रक्रियाएं हैं ? आप श्वास लेते हैं। श्वास लेना तो बहुत सीधा काम है। पर श्वास लेने के पीछे कितनी मांसपेशियों को काम करना पड़ता है। एक श्वास लेते हैं तो सत्तर-अस्सी मांसपेशियों को काम करना पड़ता है । आप एक कपड़ा पहनते हैं एक रोटी खाते हैं तो उसके पीछे हजारों-हजारों ही नहीं, लाखों तक चली जाएगी शृंखला । हजारों आदमियों का श्रम जब प्राप्त होता है तब एक रोटी या कपड़ा प्राप्त होता है। पूरा जीवन समाज पर निर्भर है। उस स्थिति में यदि समाज स्वस्थ नहीं है तो व्यक्ति कैसे स्वस्थ रह पाएगा ? प्रेक्षाध्यान का प्रयोग वैयक्तिक स्वास्थ्य का प्रयोग है। साथ में सामाजिक स्वास्थ्य का भी प्रयोग है और इस दृष्टि से है कि समाज को अस्वस्थ बनाने की वृत्तियां बदलेंगी तो समाज भी स्वस्थ बनेगा। लोभ की वृत्ति, संग्रह की वृत्ति और स्वार्थ की वृत्ति समाज को बीमार बनाती है, अस्वस्थ बनाती है । डाक्टर लोहिया बैठे थे, बातचीत कर रहे थे। उस समय मेरे पास प्रभुदयाल डाबड़ीवाल और शिवचन्द डाबड़ीवाल-दोनों बैठे थे। डॉ० लोहिया बड़े तेज-तर्रार आदमी थे। बात चल पड़ी। बातचीत के दौरान डॉ० लोहिया ने कहा -देखो, शिवचन्दजी ! अगर हमारी क्रांति सफल हुई तो तुम लोगों का धन भी जाएगा और प्राण भी जाएगा। किन्तु प्रभुदयाल का धन जा सकता है, प्राण नहीं जाएगा। सब देखते रह गए। उन्होंने कहा, प्रभुदयाल गरीबों के साथ चलता है। हम लोगों के साथ चलता है, यह गरीबों का आदमी है। जब आर्थिक क्रांति होगी, तो धन नहीं टिकेगा, पर प्राणों को खतरा नहीं है। तुम लोगों के धन और प्राण --दोनों को खतरा है । मैं देखता रह गया। उनकी बात में एक सचाई प्रकट हो रही थी। जब आर्थिक और हिंसक क्रान्तियां होती हैं तो यही होती हैं कि जो आदमी समाज से विमुख होता है, सामाजिक जीवन को नहीं जानता, उसके प्राणों को बचाना भी कठिन हो जाता है। किन्तु जो समाज के साथ होता है, उसके प्राणों को कभी खतरा नहीं होता, उसे पूरा सम्मान भी मिलता है । सामाजिक स्वास्थ्य में बाधा डालने वाली जो वैयक्तिक मनोवृत्तियां हैं, उनका परिमार्जन होना चाहिए। और यह प्रक्रिया है होने की कि जब आपका चित्त निर्मल होगा तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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