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प्रश्न है अखंड व्यक्तित्व का
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सुख तब मिलता है जब हमारे भीतरी प्रकम्पनों के साथ मन की एकाग्रता का मन की निश्चलता का कोई योग मिलता है । मन पर कोई बोझ लाद दिया, फिर सुख नहीं मिलेगा । सुख किसमें है, पदार्थ में या मानसिक अवस्था में ? मानसिक अवस्था और प्रकम्पन दोनों का योग होता है, भावयुक्त मन का योग होता है, तब सुख मिलता है । सुख तो भीतर है । हमने यह मान रखा है कि सुख बाहर है ।
आदमी बैठा है, बढ़िया से बढ़िया पदार्थों का सेवन कर रहा है और अकस्मात् संवाद मिला कि तुम्हारा प्रिय व्यक्ति चल बसा। क्या होगा ? वह रोने लग जाएगा, विलाप करेगा । आप फिर इस भ्रांति को स्पष्ट करें कि पदार्थ में सुख होता तो वह सुखी रहता है । वह तो रोने लग जाता है और विलाप करने लग जाता है । दुःख होने लग जाता है। सिर चकरा जाता है और मूच्छित हो जाता है । क्योंकि, जब हमारा मन भारमुक्त होता है तो हमें सुख का अनुभव होता है। जब हमारा मन एकाग्र होता है तो सुख का अनुभव होता है । जब हमारा मन निर्मल होता है तो सुख का अनुभव होता है । मन की स्थिति बदलती है और सुख की स्थिति बदल जाती है । यह सचाई तब समझ में आती है जब हम बाहर में भी जीते हैं और भीतर में भी जीते हैं । हमारा अखंड व्यक्तित्व तब वनता है जब बाहर में और भीतर में दोनों में रहते हैं ।
जो बाहर में रहते हैं और कभी भीतर में नहीं जाते, उनका व्यक्तित्व कभी अखंड व्यक्तित्व नहीं बन सकता । खंडित व्यक्तित्व में गलत मान्यताएं बहुत चलती हैं । आज साम्प्रदायिक कट्टरता जो चल रही है, इसका कारण खंडित व्यक्तित्व | लोग अपने सम्प्रदाय को इतना मान बैठते हैं कि उसकी सुरक्षा के लिए दूसरे को हानि पहुंचाने में उन्हें कई दर्द नहीं होता, कोई कष्ट नहीं होता । अपने सम्प्रदाय को ऊचा और दूसरे को नीचा करने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता ।
सम्प्रदाय की अन्तरात्मा में अध्यात्म होता है, होना चाहिए । जिस सम्प्रदाय की अन्तरात्मा में अध्यात्म नहीं है, वह सम्प्रदाय भला नहीं करता, लोगों को लड़ाता है । बहुत बार प्रश्न आता है कि धर्म के कारण लड़ाइयां बहुत होती हैं । धर्म के कारण लड़ाइयां बहुत हुईं - यह कहने की अपेक्षा यह कहना अच्छा होता कि सम्प्रदाय के कारण लड़ाइयां बहुत हुईं। धर्म के कारण कभी लड़ाई हो ही नहीं सकती । धर्म का मतलब है कि चेतना को पवित्र करना । बस, इतना ही अर्थ है । धर्म का अर्थ है त्याग और धर्म का अर्थ है संयम । धर्म का अर्थ है चेतना को निर्मल और पवित्र बनाना। वहां त्याग होगा, संयम होगा, व्रत होगा, चेतना का निर्मलीकरण होगा । सारी लड़ाइयां हैं भोग, असंयम और मलिन चेतना की । हुईं लड़ाइयां सम्प्रदाय के कारण
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