SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११० जीवन की पोथी समस्या का एक बहुत बड़ा सचोट समाधान है-अखंड व्यक्तित्व का निर्माण । मनोविज्ञान में दो शब्द प्रसिद्ध हैं-ड्य अल पर्सनेलिटी, नोनड्यू अल पर्सनेलिटी। खंडित व्यक्तित्व बहुत खतरनाक है। अखंड व्यक्तित्व की बहुत आवश्यकता है। पर वह हो कैसे ? जब दोनों आंखें ठीक काम नहीं करतीं, व्यक्तित्व अखंड नहीं बनता। पता नहीं सष्टि का यह क्या नियम है कि जब एक आंख काम करती है तब दूसरी आंख खुली तो रहती है, पर काम नहीं करती । आप ध्यान दें, हमें ऐसा लगता है दोनों आंखों से देखते हैं। दोनों आंखों से देखते हैं, पर कभी दोनों में से एक आंख को बन्द कर देखें तो पता लगेगा कि एक से ठीक दिखाई देता है और दूसरी से कम या धुंधला दिखाई देता है। दोनों आंखों से कम लोगों को बराबर दिखाई देता है । दोनों कानों से सुनाई बराबर नहीं देता। एक से ज्यादा सुनाई देता है । प्रकृति का नियम है कि हम दोनों आंखों से ठीक देख नहीं पा रहे हैं। एक आंख से देखते हैं । एक बन्द हो जाती है। काम करना बन्द कर देती है। एकांगी दृष्टिकोण पनपता है। किसी ने धर्म को पकड़ा तो सम्प्रदाय को छोड़ दिया। किसी ने सम्प्रदाय को पकड़ा तो धर्म को छोड़ दिया । एकांगी दृष्टिकोण हो गया। यह समस्या एकांगी दृष्टिकोण का परिणाम है । एक आंख से देखने का परिणाम है । दोनों आंखें बराबर काम करें- ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण हमें करना है। भगवान् महावीर ने दो नयों का प्रतिपादन किया-निश्चयनय और व्यवहारनय । काम चलाना है तो व्यवहार की भूमिका पर रहो। जहां सत्य को पाना है तो निश्चय की भूमिका पर चले जाओ। व्यवहार में सत्य को पाना कठिन और निश्चय में जाने पर जीवन को चलाना कठिन । दोनों चलाने हैं । जीवन यात्रा को भी चलाना है और सत्य को भी पाना है । हमें अखंड व्यक्तित्व का निर्माण करना है। हमारा व्यक्तित्व अखंड बने। दोनों दृष्टियों से बराबर काम लें । कुछ लोग निश्चय पर बहुत उतर आते हैं तो कुछ व्यवहार पर । जो लोग व्यवहार पर जाते हैं उन्हें सचाई उपलब्ध नहीं होती । जो केवल निश्चय पर जाते हैं उन्हें सत्य की यात्रा प्राप्त नहीं होती। दोनों का संतुलन चाहिए । अखंड व्यक्तित्व के लिए जानना, देखना और अनुशीलन करना बहुत आवश्यक बात है। प्रेक्षाध्यान का प्रयोग अध्यात्म का प्रयोग है। प्रेक्षाध्यान को समझने वाले और प्रेक्षाध्यान का अभ्यास करने वाले अध्यात्म का प्रयोग कर रहे हैं। धर्म के उस रूप का प्रयोग कर रहे हैं जो भीतर में ले जाता है। बाहर की सीमाएं समाप्त हो जाती हैं। बहुत अन्तर है बाहर में और भीतर में। बाहर में हमें जो सत्य लगता है, भीतर में चले जाने पर उसकी सचाई समाप्त हो जाती है। बाहर में जो अच्छा लगता है, भीतर में जाने पर कुछ दूसरी अच्छाई सामने आ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy