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________________ १०६ जीवन की पोथी अनुमोदन और समर्थन कर रहे हैं। जिन लोगों ने अपनी गलती का अनुमोदन और समर्थन करना छोड़ दिया, गलती को गलती के रूप में स्वीकार कर लिया है उनके मन में 'जैसे को तैसे' का जन्म ही नहीं होता, ऐसी भाषा ही नहीं बनती । आदत को बदलने का दूसरा महत्त्वपूर्ण उपाय है-निंदा | निंदा का परिणाम है अनुताप | अकृत के प्रति, दुष्कृत के प्रति जब अनुताप पैदा होता है तो मूर्च्छा का चक्र टूटता है । कोई भी आदमी गलत काम मूर्च्छा के करण करता है । जैसे ही मूढ़ता टूटती है, सही आचरण और सही व्यवहार होने लग जाता है । मोह और मूढ़ता के कारण अपने दुष्कृत का समर्थन होता है और फिर मोह का चक्र बढ़ता चला जाता है । जैसे ही यह निंदा का भाव और अनुताप का भाव जगा, मूर्च्छा की जड़ पर प्रहार होता है और ऐसा प्रहार होता है कि मूर्च्छा को बल नहीं मिलता । वे आदमी मूर्च्छा को बल देते हैं जो अपनी भूल को नहीं मानते । मूर्च्छा को वे ही तोड़ सकते हैं कि जिनमें इतनी शक्ति है कि अपनी भूल को भूल के रूप में स्वीकार कर सकें और उसके लिए खेद का अनुभव कर सकें । वे सचमुच मूर्च्छा पर प्रहार करने वाले लोग हैं । मूर्च्छा में आदमी समझ नहीं पाता कि क्या करना है और क्या होना है । कभी-कभी बड़ा भ्रम हो जाता है । भिखारी आया । दरवाजा बंद था । आवाज दी कि अन्दर से कुछ रोटी मिलनी चाहिए। कोई उतर नहीं आया तो फिर आवाज दी कि बीबीजी ! कुछ रोटी मिलनी चाहिए। भीतर से आवाज आई, अन्दर बीबी नहीं है । भिखारी ने कहा- मुझे बीबी नहीं, रोटी चाहिए । सचाई को नहीं समझा जा सकता । बीबी की जरूरत नहीं है, जरूरत है रोटी की । जरूरत है अनुताप की । भीतर से अनुताप निकलेगा तो मोह टूटेगा, आदत बदलेगी । मूर्च्छा नहीं टूटेगी तो आदत नहीं बदलेगी । आलोचना, अनुताप, निन्दा और मूर्च्छा को तोड़ना यह एक प्रक्रिया है आदत को बदलने की । इतना होता है तो फिर आदत भी टिक नहीं पाती । उसे भी जाना होता है, बदलना होता है। आदत को हम लोग ही तो पाल रहे हैं । यह बेचारी आई कहां से। हमने ही तो जन्म दिया और हम लोग ही तो पाल रहे हैं । प्रेक्षा ध्यान के मर्म को जरा समझना है । इसका मर्म है अपने आपको देखना । अपने आपको देखना क्यों जरूरी है ? अपनी प्रेक्षा किए बिना व्यक्तित्व रूपान्तरण की बात प्राप्त ही नही होती । कोई किसी को बदल नहीं सकता । चाहे माता हो, पिता हो, गुरु हो । गुरु उस शिष्य को बदल नहीं सकता जब तक शिष्य में प्रेक्षा के भाव नहीं जगा देता । मातापिता अपने पुत्र और पुत्री को नहीं बदल सकते, जब तक उनमें प्रेक्षा के भाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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