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प्रश्न है आदत को बदलने का
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नाम है निन्दा । मन में अनुताप होता है कि यह काम गलत किया, नहीं करना चाहिए था । अनुताप होगा, यह है निन्दा । जब तक अपने अकृत कार्य के प्रति, दुष्कृत कार्य के प्रति, अनुताप का भाव नहीं होता, तब तक आदत को नहीं बदला जा सकता । वही आदत बदली जा सकती है जिसके प्रति मन में अनुताप का भाव उत्पन्न हो जाए। अकरणीयता का भाव उत्पन्न हो जाए कि यह कार्य मेरे लिए अकृत्य है, गहित है, अच्छा नहीं है। मुझे नहीं करना चाहिए । अखाद्य नहीं खाना चाहिए । अपेय नहीं पीना चाहिए। शराब नहीं पीना चाहिए और तम्बाकू नहीं पीना चाहिए । मुझे क्रोध नहीं करना चाहिए, गाली-गलौज नहीं करना चाहिए । जब नहीं करने की भावना और करने पर अनुताप का भाव होता है, तब आदत के बदलने की संभावना पैदा हो सकती है । अन्यथा आदत को नहीं बदला जा सकता। बहुत सारे लोग गलत काम कर जाते हैं और उसे अच्छा समझ लेते हैं। करते भी हैं और उसका अनुमोदन करते हैं, समर्थन करते हैं कि मैंने जो कुछ किया है वह अच्छा किया है। इसलिए व्यवहार के क्षेत्र में यह सूत्र चला कि 'जैसे को तैसा।' व्यवहार के क्षेत्र में यह गलत नहीं है । यह साधना कि दृष्टि से गलत है। पर व्यवहार के जगत् में अकृत में प्रति अनुताप नहीं होता, वहां फिर जैसे को तैसा' चल पड़ता है।
आशुतोष मुखर्जी रेल की यात्रा कर रहे थे। उसी डिब्बे में विदेशी लोग भी बैठे थे । गोरे लोगों में रंग का उन्माद था। हमारे साथ काला आदमी क्यों ? इस प्रश्न ने उनके उन्माद को बढ़ा डाला। उन्होंने मुखर्जी के साथ पहले लंबा-चौड़ा वाद-विवाद किया और उस डिब्बे से उतर जाने को कहा । मुखर्जी स्वयं समर्थ और शक्तिशाली व्यक्ति थे। वे उतरे नहीं। कछ समय बाद वे सो गए । नींद आ गई । एक विदेशी ने उनके जूते गाड़ी के बाहर फेंक दिये । कुछ समय बीता। गोरे लोग सो गए । मुखर्जी जागे । अपने जूते न देखकर वे समझ गए कि यह गोरे लोगों कि हरकत है । एक गोरे का कोट पड़ा था। मुखर्जी ने उसे गाड़ी के बाहर फेंक दिया। विदेशी ने देखा, कोट नहीं है। उसने मुखर्जी से पूछा। मुखर्जी बोले-कोट जूते लाने गया है । सब चुप ।
___ 'जैसे को तैसा'-यह व्यवहार का सूत्र है, अध्यात्म का नहीं । यदि मुखर्जी अध्यात्म की दृष्टि से सोचते तो कोट नहीं फेंकते, अपने जूतों का नुकसान सह लेते । पर उन्होंने व्यावहारिक चेतना के स्तर पर वैसा आचरण किया।
जब व्यक्ति में अनुताप की चेतना जागती है तब वहां 'जैसे को तैसा' इसका अवकाश ही नहीं रहता। ऐसी बात ही नहीं सोची जा सकती। 'जैसे को तैसा' के सिद्धांत तो चल रहे हैं, वे लोग चला रहे हैं जो अपनी दुष्कृत का
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