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________________ जीवन की पोथी वरं विभववन्ध्यता सुजनभावमाजां नृणामसाधुचरिताजिता न पुनजिताः संपदः । कृशत्वमपि शोभते सहजमायती सुन्दरं, विपाकविरसा न तु श्वयथुसंभवा स्थूलता ॥ अगर आदमी सज्जन है, सदाचारी है, सदाचार से अपना काम करता है और यदि उसे करोड़ रुपए नहीं मिले तो अच्छा है, कोई बुरा नहीं है । और किसी ने बेईमानी के द्वारा और बुराई के द्वारा दूसरे को ठगकर, धोखा देकर करोड़ों की संपदा अजित कर ली, यह बिलकुल अच्छा नहीं। इस बात को उन्होंने बड़ी सुन्दर उपमा के द्वारा समझाया कि एक आदमी कृश है, दुबला-पतला है, सुन्दर लगता है, शोभा देता है। किन्तु सूजन के रोग से यदि उसका शरीर स्थूल होता है तो भविष्य में उसका परिणाम सुन्दर नहीं होता । आज के डाक्टर भी कहते हैं-पतले रहो, पतले रहोगे तो सौ वर्ष तक जी सकोगे और आराम से रह सकोगे। अगर चर्बी बढ़ा ली तो १०० वर्ष तो आएंगे ही नहीं और आएंगे तो बीमारियों को पालते आएंगे। मैंने पढ़ा, अमेरिका में एक क्लब है मेयो क्लब। उसका सदस्य वही बन सकता है जो शतायु होता है, सौ वर्ष का होता है। तो उस क्लब के व्यक्ति ने लिखा कि हमारी क्लब के जितने सदस्य बने, उनमें से कोई भी आज तक चर्बी वाला नहीं बना, जितने भी बने वे पतले और दुबले बने। ___ आज की सारी धारणा ही बदल गई। इसलिए यह ठीक कहा है कि सहज जो कृशता होती है वह सुन्दर होती है और भविष्य में उसका परिणाम अच्छा होता है । पतला आदमी अच्छे ढंग से चल सकता है, उठ-बैठ सकता है और अपनी शक्तियों का ठीक ढंग से संचालन कर सकता है। यदि चर्बी बढ़ गई तो अवरोध पैदा हो गए और अनेक बीमारियां पैदा हो गई। मोटापा एक बार अच्छा लगता है, पर परिणाम उसका सुन्दर नहीं होता। विकास का अर्थ कोरा फैलना ही नहीं है, किन्तु अपनी सीमा में रहना है। यह जो विकास की परिभाषा बना ली गई आर्थिक विकास, बौद्धिक विकास, साम्राज्य का विकास, इन विकास की धारणाओं ने आदमी को भटका दिया और एक अन्धेरा पैदा कर दिया। विकास वहां हो सकता है जहां दूसरे के लिए अवरोध पैदा न हो और दूसरे के लिए सिर दर्द न बने। दूसरे के लिए सिरदर्द बनना, वह विकास नहीं होता। वह मानव जाति के लिए ह्रास होगा । एक बहुत बड़ा विघ्न है यह असंतोष, निदान या आकाक्षा । उसकी एक सीमा होनी चाहिए। आज समस्या का समाधान इसीलिए नहीं हो रहा है कि अर्थशास्त्रीय विकास की परिभाषा कठिनाई पैदा कर रही है, और परी मानव जाति को भटका रही है। कल परसों एक युवक आया और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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