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प्रश्न है आलोचना का
ठीक नहीं है। मित्रों ने पूछा-आप कहां रहते हैं ? उत्तर मिला कि तीसरी मंजिल पर । नीचे मेरे नौकर-चाकर रहते हैं। मित्र बोले-अरे! यह क्या ? आप तो अत्यन्त साधारण कमरे में रहते हैं और नौकर-चाकर बढ़िया कमरों में रहते हैं। ऐसा क्यों ? मकान मालिक बोला- एक समय ऐसा था जब मेरी मां भी नौकरानी थी।
कितने मर्म की बात कही ! जो व्यक्ति आलोचना करता है, सही घटना देखता है, उसके जीवन-व्यवहार की शैली बदल जाती है। उस व्यक्ति को यह अनुभव था कि मां भी कभी नौकरानी थी और उसने ऐसा कठोर जीवन जीया था। नौकर-चाकर को भी कितनी सुविधा चाहिए !
आलोचना करनी होगी तो सबसे पहले हमें विघ्नों पर विचार करना होगा । जीवन के विघ्न क्या-क्या है ? कौन-कौन से विघ्न आते हैं जो जीवन की सरसता और महत्ता को नष्ट कर देते हैं ? विघ्न पर विचार करने से हमारी शैली बदल जाएगी।
माया एक विघ्न है। माया होगी तो समाधान नहीं होगा। एक के बाद दूसरी समस्या उत्पन्न होती रहेगी। विश्वास सदा विश्वास पैदा करता है । माया माया पैदा करती है। माया कभी विश्वास पैदा नहीं होने देती। जहां मायाचार होगा, वहां आदमी पहले ही सोचेगा कि अमुक से सावधान रहना है । वह बड़ा धूर्त है, चालाक है। वह सामने मीठी बात करेगा और पीछे से बकवास करेगा, कहेगा कि यह धोखेबाज है।
जहां धारणा बनी, अन्तर आ गया, और एक विघ्न पैदा हो गया। माया हमारी समस्या के समाधान का और मुक्ति का सबसे बड़ा विघ्न है।
दूसरा विघ्न है निदान । आकांक्षा होना एक बात है और आकांक्षा ही आकांक्षा होना दूसरी बात है । कहीं आकांक्षा की समाप्ति नहीं और कहीं विराम नहीं, यह जीवन का बहुत बड़ा विघ्न है, किसी न किसी सीमा पर तो हर आदमी को संतोष मानना ही पड़ता है।
आज का अर्थशास्त्री कहता है कि जहां हम संतोष मान लेंगे तो हमारा विकास नहीं होगा। तर्क तो ठीक है कि विकास नहीं होगा। आखिर विकास की भी सीमा तो होनी ही चाहिए। उनका भी तो कोई अर्थ है। यह तो नहीं कि आदमी सर्वत्र फैल जाए । एक ही व्यक्ति अपना पूरा आर्थिक साम्राज्य बना ले, अपना भौगोलिक साम्राज्य बना ले, इसे विकास नहीं कहा जाएगा। इसे मानव जाति के प्रति अन्याय कहा जाएगा, अत्याचार और क्रूरता कहा जाएगा। विकास भी सापेक्ष होना चाहिए।
एक आदमी फैलता ही चला जाए, कैसे हम कहेंगे कि विकास हो गया। आचार्य सोमसुन्दर ने 'सिन्दूर प्रकरण' काव्य में कहा है
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