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________________ ९८ जीवन की पोथी सही है। वह यह मानकर चलता है कि भीतर कितनी गलतियां हैं, विकार हैं, कितनी बुराइयां हैं और कितने दोष हैं ! क्या छिपाना है ? उन सबको देखना और उनको साफ-साफ स्वीकार करना, यह आलोचना का पहला सिद्धांत और पहली निष्पत्ति है। प्रत्येक व्यक्ति, अपने भीतर खराबी है। इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं है। वह कहे या न कहे, सोचता यही है कि सामने वाले में सारी बुराइयां हैं, कमियां हैं। वह स्वयं बिलकुल ठीक है। जहां भी दो व्यक्ति साथ में रहते हैं, समस्या पैदा होती है। अगर दोनों को यह अनुभव हो जाए कि गलती मुझमें है और उसमें भी हो सकती है तो समस्या का सही समाधान हो सकता है । पर गलती मुझमें है, यह पहली स्वीकृति होती नहीं है । पहली स्वीकृति वह होती है कि गलती उसकी है और मैं तो बिलकुल ठीक हूं । अपनी निर्दोषता की स्वीकृति और सामने वाले के दोष की स्वीकृति वही सबसे बड़ी समस्या है जो पर-दर्शन से निष्पन्न होती है। जहां आत्म-दर्शन की बात आ गई, यह बात समाप्त हो गई कि सामने वाले में गलती है या नहीं, इसकी चिन्ता करने से पहले मुझे इस बात की चिंता करनी है कि मुझमें कितनी गलतियां हैं । आलोचना का यह सिद्धांत साधना के क्षेत्र में आया और उससे साधक को ऋजु होने का मौका मिला। ऋजुता शारीरिक दृष्टि से भी बहुत उपयोगी है । अंगुली टेढ़ी है, प्राणधारा भी टेढ़ी होगी। रक्त का संचार भी कम होगा। अगर आप लेटते हैं और सीधे पर रहते हैं सिर से पैर तक, शरीर सीधा रहता है तो रक्त का संचार ठीक होगा। जो अवयव वक्र होगा उसमें रक्त का संचार सही ढंग से नहीं हो सकेगा। रक्त का संचार तभी ठीक होगा जब वह अवयव सीधा होगा। इसलिए सोने की मुद्रा है उत्तानशयन-सीधा सोना । टेढ़ा न सोना। आप बैठे तो बैठने में भी अवरोध है, पालथी मारकर बैठते हैं यह भी एक अवरोध है। भगवान् महावीर खड़े-खड़े ध्यान करते थे। क्या बैठना नहीं जानते थे ? पर बैठते कम थे। अधिकांश ध्यान खड़ेखड़े किया करते । इसका कारण है कि बठने पर प्राणधारा का अवरोध होता है। जितना अच्छा ध्यान खड़े-खड़े होता है उतना अच्छा ध्यान बैठे-बैठे नहीं होता है। कमजोर आदमी होता है वह लेटे-लेटे करता है और शक्तिशाली होता है वह खड़े-खड़े करता है और मध्यम होता है वह बैठे-बैठे करता है। प्रेक्षा एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है अपने आपको देखने का । जो आत्मालोचन करता है, उसके जीवन की प्रणाली बदल जाती है। एक व्यक्ति ने आलीशान मकान बनवाया। एक दिन उसके घर मित्र आए और मकान को देख प्रसन्न हुए। नीचे कमरे बहुत विशाल और सजेसजाए थे। पहली मंजिल पर गए, दूसरी मंजिल पर गए, और तीसरी मंजिल पर भी गए। उन्होंने देखा कि ऊपर के कमरे साधारण हैं, साज-सज्जा भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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