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________________ प्रश्न है आलोचना का पर ज्यादा कृपा है, जिससे कि हमें इतना गोरा बनाया है। भगवान् की कृपा है । अहंकारी आदमी हर बात को बना राधाकृष्णन् बोले -- 'थोड़ी भूल है तुम्हारे कथन में । जब सृष्टि का निर्माण कर रहा था तो उसने जो पहली रोटी सेकी, थोड़ी कच्ची रह गई और उसी से अंग्रेज जाति का निर्माण कर दिया । और दूसरी थोड़ी ज्यादा सिक गई तो नीग्रो जाति का निर्माण कर दिया । और जब ठीक ढंग से रोटी सेकी, न गोरी और न काली, तो भारतीय जनता का निर्माण कर दिया ।' ईश्वर वह Jain Education International 1 मिथ्या धारणा बना लेता है आदमी । कुछ भौगोलिक कारण होते हैं, कुछ प्राकृतिक कारण होते हैं । और उन कारणों से मनुष्य जाति में थोड़ा परिवर्तन होता है। किंतु मनुष्य ने इतना मिथ्या दृष्टिकोण बना लिया और इतनी मिथ्या धारणा बना ली कि उनके कारण जीवन में अन्धकार बहुत पलता जा रहा है । प्रकाश कम होता चला जा रहा है और अन्धकार बढ़ता चला जा रहा है । माया, निदान और मिथ्यादर्शन - जब तक ये तीन बातें होती हैं तब तक आदमी अपने आपको देख नहीं सकता । इसे उलट कर यों कह दें कि जब तक आदमी अपने आपको नहीं देखता, तब तक माया को पालेगा, असंतोष और आकांक्षा को पालेगा और मिथ्या दृष्टिकोण को पालेगा । वे सब लोग, जिन लोगों ने अपने आपको देखना नहीं सीखा, अपनी प्रेक्षा करना नहीं सीखा, निश्चित ही इन तीनों में चले की त्रिवेणी में चले जाएंगे । इसमें अवगाहन करेंगे, बिलकुल स्वाभाविक बात है । जो अपने आपको नहीं देखता, वह कभी ऋजु और सरल नहीं हो सकता । वह हर बात को छिपाएगा । अपनी गलती को छिपाने की बात तो एक छोटा बच्चा भी सीख लेता है । सचाई पर आवरण डालना वह सीख लेता है। बचपन से वह देखता है कि पिता झूठ बोल रहा है और सचाई को प्रगट नहीं कर रहा है । छिपा रहे हैं तो फिर मुझे क्यों प्रगट करना चाहिए। वह भी छिपाना चाहता है और छिपाने में रस भी आता है । सोचता है, बात को साफ-साफ कहा तो डांट-डपट मिले और छिपा दिया तो बच गए । बच जाता है तो विश्वास पैदा हो जाता है, छिपाने में बचाव और कहने में समस्या, डांट-डपट और उलाहना कितना सहना पड़ता है ! छिपाने की बात बहुत सीधी लगती है तो छिपा लेता है । छिपाता वही है जो आलोचना करना नहीं जानता । प्रेक्षाध्यान का प्रयोग इसलिए बहुत महत्त्वपूर्ण है कि जिस व्यक्ति ने अपने आपको देखना सीखा है, उसने सारे छिपाव दूर कर दिए। वह अपने भीतर में होने वाले प्रकम्पनों को देख रहा है । अपने भीतर उठने वाले विकारों को देख रहा है, विकार की तरंगों को देख रहा है । वह यह नहीं मान रहा है कि मेरे भीतर सवा सौ प्रतिशत ९७ गोरा होना ही लेता है । डॉ० For Private & Personal Use Only जाएंगे । अन्धकार मज्जन करेंगे । यह www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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