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________________ जीवन की पोथी ऋजुता नहीं है, प्रकाश नहीं है। हर व्यक्ति गुप्तचरी करता है, यानी गुप्त रखने की बात हर व्यक्ति के पास है । वह येन-केन-प्रकारेण छिपाता है। सर्वत्र माया है। कहीं सरलता नहीं है। आज ऐसा मान लिया गया है कि जीवन में प्रकाश और अन्धकार-दोनों साथ-साथ चलने चाहिए। कुछ बात स्पष्ट रखनी चाहिए और कुछ अस्पष्ट । छिपाने की बात प्रारम्भ से ही सिखा दी जाती है। व्यक्ति घर में बैठा है और बच्चे को कहता है कि कोई आकर पूछे तो कह देना कि डेडी घर में नहीं हैं । बच्चा छिपाना सीख जाता है। जीवन में कोरा प्रकाश न रहे, थोड़ा अन्धकार भी चलता रहे। मान लिया गया कि कोरे प्रकाश से जीवन चलता नहीं। कोरा प्रकाश क्यों हो, इस धारणा के आधार पर व्यक्ति-व्यक्ति के बीच में, समाज-समाज के बीच में और राष्ट-राष्ट के बीच में मायाचार चल रहा है । इस मायाचार के कारण तनाव पैदा हो रहा है । सबसे बड़ा तनाव है छिपाव का। जो बात साफ है, वहां तनाव नहीं होता। जहां छिपाव आया, वहीं तनाव आ जाता है। दूसरे पर इतना दबाव होगा कि यह बात छिपाई जा रही है। साफ नहीं बताई जा रही है। वहीं तनाव पैदा हो जाएगा। जो व्यक्ति अपने आपको नहीं देखता, वह व्यक्ति कोरे प्रकाश का जीवन नहीं जी सकता। वह प्रकाश और अन्धकार---दोनों का जीवन जीता है। जो व्यक्ति अपने आपको नहीं देखता, वह व्यक्ति कोरे संतोष का जीवन नहीं जी सकता । उसमें कुछ संतोष होगा तो साथ-साथ में वह असंतोष को भी पालेगा। हर व्यक्ति के जीवन को देखा जाए तो ऐसा अनुभव होगा कि संतोष के साथ-साथ असंतोष भी चल रहा है। इसका कारण है कि आत्मालोचन नहीं है, अपनी आलोचना नहीं है। खोजने पर बड़ी मुश्किल से कोई मिलेगा कि जिसमें असंतोष न हो। सब कुछ प्राप्त है फिर भी असंतोष है । किसी को धन न होने का असंतोष और किसी में परिवार पूरा न होने का असंतोष और किसी में सम्मान न होने का असंतोष, किसी न किसी बात का असंतोष मिलेगा ही। __ शिष्य ने कहा -'गुरुदेव ! मुझे वह आंख चाहिए जिससे मैं अपने आपको देख सकूँ। और केवल संतोष का जीवन जी सकू, असंतोष से दूर रह सर्वं । गुरुदेव ! मुझे वह आंख चाहिए जिससे मैं सही दृष्टिकोण अपना सकू, मिथ्या दृष्टिकोण हट जाए।' व्यक्ति का दृष्टिकोण बड़ा गलत होता है। वह यथार्थ का मूल्यांकन नहीं करता, सचाई को नहीं पकड़ता। झूठी धारणाएं बना लेता है। एक बार की घटना है कि कुछ अंग्रेज डा० राधाकृष्णन् से बात कर रहे थे । बातचीत के दौरान एक अंग्रेज ने अहंकार की भाषा में कहा कि भगवान् की हम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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