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________________ ७८ / अश्रुवीणा इसमें उत्प्रेक्षा, परिकर, अनुप्रास, काव्यलिंग आदि अलंकार हैं। उत्प्रेक्षा- मानो शरीर को बढ़ाते हुए सुशोभित हो रहा है। परिकर- विशदं, नियतनिरतः , कुटिलमतिना आदि साभिप्राय विशेषण। प्रसाद और माधुर्य गुण । उपचार वक्रता कल्पनानां निकायो' भावपदार्थ है जो सुशोभित हो रहा है- लसति। यह मूर्त का धर्म है । मूर्त के धर्म का अमूर्त पर आरोप। (१३) सर्वा सम्पद् विपदि विलयं निर्विरोधं जगाम, व्यूढ श्रद्धा महति सुकृतेऽद्यापि नूनं परीक्ष्या। भक्त्यादेशा प्रकृतिकृपणाऽकिञ्चिनै निर्विशेषा, स्वामिन्नेषा विनयविनताऽस्मि प्रणामावशेषा।। अन्वय- सर्वा सम्पद् विपदि निर्विरोधं विलयं जगाम। महति सुकृते व्यूढ श्रद्धा अद्यापि नूनं परीक्ष्या। स्वामिन् ! प्रकृतिकृपणा अकिञ्चनैः निविशेषा एषा भक्त्यादेशा विनयविनता प्रणामावशेषा अस्ति। अनुवाद- जिसकी सम्पूर्ण सम्पत्ति निर्विरोध रूप से विपत्ति में विलय को प्राप्त हो गई है। महान् पुण्य के उदय होने पर क्या आज भी दृढ़ श्रद्धालु परीक्ष्य है। स्वामी ! प्रकृति कृपण, अकिंचन समान मुझसे केवल भक्ति की ही आशा की जा सकती है। मैं विनय विनत हूँ तथा मेरे पास प्रमाण मात्र ही अवशेष हैं। व्याख्या- भक्त हृदय की तैयारी एवं भक्त की मनोदशा का सुन्दर चित्रण किया गया है । प्रथम पंक्ति को भक्ति का प्रथम सोपान कहा जा सकता है। सर्वा- विलयं जगाम-इस पंक्ति से चन्दनबाला की पूर्वघटना संसूचित है। सांसारिक संबंधो के ह्रास एवं भौतिक संपदाओं के विनाश के बाद ही भक्ति का दीप प्रज्वलित होता है। अहंकार के रहते विनय का सद्भाव हो ही नहीं सकता है। विलय = विनाश, मृत्यु। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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