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अश्रुवीणा / ७७ यो कल्पनानां निकाय :- जो कल्पनाओं का समूह । यहाँ निकाय शब्द समूह वाचक है। नि उपसर्गपूर्वक चि धातु से घञ् और कुत्व करने पर निकाय बनता है। महावीर चरितम् ( 1.50) में इसी अर्थ में निकाय शब्द का प्रयोग हुआ है। किसी वस्तु के विषय में उसके चित्र का, स्वरूप का हृदय में स्थिरीकरण कल्पना है, जो रूप देना, आकृति देना, स्थिर करना आदि का वाचक है।मानसिक चिन्तन को कल्पना कह सकते हैं। नियति निरतः = नियति के वशीभूत । भाग्य को नियति कहा जाता है। दैवं दिष्टं भागधेयं भाग्यं स्त्री नियतिर्विधिः । अमर. 1.4.28 नियतिर्नियमे दैवे-विश्व 69.159
नियम्यतेऽनया नियति ।नियच्छति वा।निरत-आसक्त, वशीभूत । नियतनिरतः पद कल्पनां निकायो का विशेषण है। पेलवो अजनिष्ट- क्षीण हो गया था। पेलव-दुर्बल, पतला, क्षीण। अभिज्ञान शाकुन्तलम् 3.22 में ऐसा ही प्रयोग है।
अजनिष्ट- जनि प्रादुर्भावे धातु का लुङ्लकार में प्रथम पुरुष, एकवचन, आत्मने पद का रूप है। कुटिलमतिना भाग्येन-कुटिलमति भाग्य के द्वारा। कुटिलमति भाग्य का विशेषण है। तृतीया एकवचन । कुटिल टेड़ा। टेढ़े का ग्यारह नाम अमरकोश (3.1.71) में निर्दिष्ट है। कुटिं कौटिल्यं लाति। जो कुटिलता को लाता है वह कुटिल है। आतोऽनुपसर्गे कः (पा.3.2.3) से क प्रत्यय।कुट-कैटिल्ये धातु से भी कुटिल पद का निर्माण होता है। मिथिलादयश्च (उणादि 1.57) से इलच् प्रत्यय के योग से कुटिल बनता है।
भाग्य-देखें नियति। भज सेवायाम्' धातु से ऋहलोर्ण्यत् (पा. 3.1.124) से ण्यत् चजोः (पा.7.3.52) से कुत्व ।
समरसजुषा- समरस (समता धर्म) में जो लीन है उसके द्वारा । यह भगवान् महावीर का विशेषण है। समरस को पसन्द करने वाला समरसजुष् है। तृतीया एकवचन में समरसजुषा । समास के अन्त में जुष् का प्रयोग देखा जाता है । जुषी प्रीतिसेवनयो: धातु से क्विप् करने पर जुष् बनता है। जुष् का समासान्त प्रयोग भतृहरि के वैराग्यशतक (102) में देख सकते हैं।
क्रीडा कानन केलि कौतुक जुषा. ।
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