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४२ / अश्रुवीणा उदय स्थान सुकुमार प्रदेश हृदय में होने से वह स्वयं सुकुमारी है लेकिन तर्क कर्कश । श्रद्धा पूर्ण विश्वास का नाम है तो तर्क प्राप्त पर भी सन्देह का अभिधान है। श्रद्धा में यह विशेषता है कि वह कल्पना द्वारा बनायी हुई अपने श्रद्धेय की मूर्ति को साक्षात् मान लेती है, जबकि तर्क साक्षात् दिखने वाले श्रद्धेय पुरुष को भी सन्देह भरी दृष्टि से देखता है ।14 श्रद्धा मनुष्य के अन्तरतम में प्रविष्ट रहती है लेकिन तर्क बुद्धि से आगे बढ़ता ही नहीं। श्रद्धा-संवलित और तर्क से विरहित व्यक्ति ही आत्म-तत्त्व को प्राप्त कर सकता है।
'श्रद्धा और भक्ति में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि दोनों एक ही हैं। वास्तविकता भी यही है। जब तक उपास्य के गुणों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न नहीं हो, तब तक भक्ति अधूरी रहती है और जब तक भक्ति पूर्ण न हो तो श्रद्धा की कल्पना ही व्यर्थ है।
श्रद्धा अंधी नहीं होती है। उसमें ज्ञान का भी योग रहता है। प्राप्तव्य के माहात्म्य-गौरव एवं श्रेष्ठता को जाने बिना उसके प्रति श्रद्धा हो ही नहीं सकती। नारद ऋषि के शब्दों में-'माहात्म्य-ज्ञानमपि सा15 अर्थात् श्रद्धा में या भक्ति में श्रद्धास्पद का माहात्म्य बोध भी भक्त हृदय में पूर्णतया निष्ठित रहता है।
श्रद्धा में अदम्य शक्ति है। बड़े-बड़े महापुरुष भी उसके वशवर्ती हो जाते हैं। यह अमोध अस्त्र है । देव, पितर, मनुष्यादि सभी को इस अस्त्र से सरलता से वशीभूत किया जा सकता है। सर्वतन्त्र भगवान् महावीर भी इसके बन्धन में बँध जाते हैं। श्रद्धा की गंगा में सती चन्दनबाला निमज्जित होकर धन्य-धन्य हो गयी। अप्राप्य वस्तु को प्राप्त कर सहसा उसे विश्वास ही नहीं होता। आज उसका जीवन सफल हो गया। जन्म-जन्मान्तर के अभीप्सित आराध्य उसकी श्रद्धा की शैय्या पर आसन जमा चुके थे:
"देवः साक्षात् विहरति पुरः पावनो मां पुनानः॥
श्रद्धा आनन्द की निष्यन्दिनी है। श्रद्धा की उत्पत्ति होते ही हृदय में आनन्दभावना तरंगायित होने लगती है। वाणी गद्गद और शरीर रोमाञ्चित हो जाता है। संसार के सम्पूर्ण दुःख-सुख, राग-द्वेष आदि तिरोहित होकर केवल आनन्द ही शेष रह जाता है। इसमें द्वैत का सर्वथा अभाव हो जाता है। सम्पूर्ण जीवजगत् 'आत्मवत्सर्वभूतेषु' की भावना में प्रतिष्ठित हो जाता है।
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