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________________ "अश्रुवीणा" में श्रद्धा का स्वरूप / ४१ श्रद्धे!मुग्धान्प्रणयसि शिशून्दुग्ध-दिग्धास्यदन्तान्, भद्रानज्ञान् वचसि निरतांस्तर्कवागैरदिग्धान्॥" इसी प्रकार पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने भी श्रद्धा-उदय के लिए आत्मनिषेध या हीनता की भावना को आवश्यक माना है। मैग्डूगल के अनुसार आत्महीनता की भावना श्रद्धा के लिए अनिवार्य है। अत्यधिक आत्म-विश्वासी, आत्म-तुष्ट और अहंकारी व्यक्ति श्रद्धालु नहीं हो सकता। अहं का विसर्जन और उदारता सच्ची श्रद्धा के लिए आवश्यक है। आचार्य शक्ल ने भी इसी तरह का अभिमत प्रकट किया है-"जिनकी स्वार्थ-बद्ध दृष्टि अपने से आगे नहीं जा सकी, वे श्रद्धा जैसे पवित्र भाव की धारणा नहीं कर सकते हैं। स्वार्थियों और अभिमानियों के हृदय में श्रद्धा क्षण मात्र भी नहीं रुक सकती। चन्दनबाला का हृदय पूर्णतः पवित्र हो चुका है। वह स्वार्थ की सीमा लाँघ कर असीम में अधिष्ठित हो गयी है। या यों कह सकते हैं कि उसका स्वार्थ इतना विकसित हो गया कि वह परमार्थ रूप प्रतिष्ठित हो गया है। __ श्रद्धा का पूर्ण आधार विश्वास है । जब तक जीवमात्र के हृदय में श्रद्धास्पद के गुणों पर पूर्ण निष्ठा नहीं बन जाती, 'यह मेरे अभीप्सित को पूर्ण करने या संसार-सागर से पाप उतारने में समर्थ है'- इस तरह की भावना जब तक बलवती नहीं होती तब तक श्रद्धा का उदय नहीं होता है। इसमें पूर्ण समर्पण की भावना होती है।दुःख में, दारिद्य में, विपत्ति में भक्त भगवान् के पादचरणों में अपना सब कुछ समर्पित कर दुःख सागर से सद्य: मुक्त हो जाता है। भारतीय वाङ्मय-(वैदिक-जैन-बौद्ध) में अनेक कथाएँ हैं जिनसे ऐसा प्रतीत होता है कि भवसागर संतारक पर पूर्ण विश्वस्त होकर जीव अनायास ही दुःख से मुक्त हो जाते हैं । चन्दनबाला पूर्ण विश्वस्त है अपने श्रद्धास्पद के प्रति, उनके गुणों के प्रति कि "वे अवश्य मुझे पार उतारेंगे। वे असंख्य जीवों के संतारक हैं, इसमें उस बाला के हृदय में तनिक भी ननुनच नहीं है। महाभारत की द्रौपदी, भागवत के गजेन्द्र आदि इसके अनन्यतम उदाहरण हैं। श्रद्धा और तर्क में कोई सम्बन्ध नहीं है। श्रद्धा में पूर्ण समर्पण एवं आत्मनिषेध निहित रहता है लेकिन तर्क में इसका सर्वथा अभाव है। श्रद्धा का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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