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४० / अश्रुवीणा
जैन वाङ्मय में श्रद्धा, रुचि और प्रत्यय तीनों पर्याय के रूप में प्रयुक्त हुए हैं। 'तत्त्वार्थाभिमुखी बुद्धिः श्रद्धा' अर्थात् तत्त्वार्थों के विषय में उन्मुख बुद्धि को श्रद्धा कहते हैं। जहाँ पर श्रद्धा होती है वहीं पर चित्त लीन होता है। जिनेन्द्र स्वामी प्रवाचित उपदेशों में सम्यक् निष्ठा श्रद्धा है।
उपास्य में पूर्ण विश्वास, उसके गुणों के प्रति पूर्ण आस्था श्रद्धा है। सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक अलैग्जेंडरवेन ने श्रद्धा के लिए दो शब्दों Admiration and Esteem का प्रयोग कर उन्हें परिभाषित किया है:
Admiration is the response to pleasurable feeling aroused by Excellence or Superiority, a feeling closely allied to Love.? Esteem refers to the performance of essential duties, whose neglect is attended with evil,
आचार्य शुक्ल के शब्दों में किसी मनुष्य में जनसाधारण से विशेष गुण एवं शक्ति का विकास देख उसके सम्बन्ध में जो एक स्थायी आनन्द-पद्धति हृदय में स्थापित हो जाती है उसे श्रद्धा कहते हैं। श्रद्धास्पद के प्रति पूर्ण समर्थन का नाम है श्रद्धा। श्रद्धा एक हृदय की भावना है जो पूज्य के साथ अनन्यथा सिद्ध
है।
यह अमृत-स्वरूपा है जिसको पाकर व्यक्ति पूर्ण, तृप्त एवं आत्माराम हो जाता है। श्रद्धा का उदय होते ही सम्पूर्ण सांसारिक इच्छाओं का शमन हो जाता है। श्रद्धास्पद को छोड़कर व्यक्ति एक क्षण भी अन्यत्र नहीं जाना चाहता है।
यह अहसास जीवों का एकमात्र सहायक है । जब संसार के सम्पूर्ण स्वजनपरिजन अपने-अपने दरवाजे बन्द कर लेते हैं तब श्रद्धा ही समर्थ-नौका बनती है जो आगत आपद्-समुद्र से शीघ्र ही उबार लेती है। जिसके पास भौतिक सम्पदाओं का पूर्ण निरसन हो जाता है तब श्रद्धा ही एकमात्र अवशिष्ट रहती है।1०
जिसके मन का रूखापन समाप्त हो गया है, दंभ, गर्व, रागादि नाममात्र शेष नहीं हैं, जो दुधमुंहे बच्चे के समान हैं, भोले हैं, अज्ञ हैं या जिनका मन तर्क की परिणाम विरसता से ऊब गया है उन्हीं के हृदयाकाश में श्रद्धा का उदय होता है।
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