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२८ / अश्रुवीणा
श्रद्धाश्रूणि प्रकृतिमृदुत्ता मानसोद्घाटनानि।
निःश्वासाश्चाखिलमपि मया स्त्रीधनं विन्योजि॥० ये न केवल नारी-समाज के वैभव हैं बल्कि सम्पूर्ण सचेतन-प्राणियों के एकमात्र अवलम्ब भी हैं । जहाँ प्रापञ्चिक् जगत् उपरत हो जाता है-वहां केवल ये ही शेष रहते हैं जो अपने उपजीव्य-संगति की प्राप्ति में सहायक भी होते हैं। ___4. रमणीयता-रमणीयता, परात्परता, रोमांचकता, अधीरता आदि गीतिकाव्य के प्राण तत्त्व हैं। जब तक कवि अधीर नहीं होता उसका धैर्य टूट नहीं जाता तब तक गीतिकाव्य का प्रादुर्भाव कहां? इस अधीरता का एकमात्र कारण अपने प्रियतम की प्राप्ति में व्यवधान ही है। शापवशात् यक्ष प्रियतमा से अलग हुआ। आषाढ़ के प्रथम दिवस में मेघ को देखकर अधीर हो गया। प्रियतमा की यादें उसे सताने लगी। बस इतना ही काफी है-हृदय की समस्त भावनाएँ बहिर्भूत् हो निकलने लगीं।' वैसी शाब्दिक अभिव्यक्ति में रमणीयता, रोमाञ्चकता आदि सहज ही विद्यमान हो जाती है। अधीर चन्दनबाला की भी यही अवस्था है-भगवान् भिक्षा लेने के लिए प्रस्तुत थे। चन्दनबाला की आँखें उनकी प्रतीक्षा में अधीर हो रही थीं
भिक्षां लब्धं प्रसृतकरयोः सम्प्रतीक्षापटुभ्यां,
तच्चक्षुभ्यां हसितमियताऽपूर्व हर्षोदयेन। भगवान् के पुनरागमन से चंदनबाला का ताप, शीतलता और पावनता में बदल गया। सब कुछ रमणीय हो गया क्योंकि उसकी साध पूर्ण हो रही है। उसकी आँखों में अवशिष्ट आँसुओं की बूंदें भिक्षा-विधि में दाता और ग्रहीता का दृश्य देखने के लिए उत्सुक हैं
सा संरुद्धा विरलतनवः केवलं बिन्दवस्ते,
तस्थुर्भिक्षा-ग्रहण-सरणिं स्वामिनो द्रष्टुमुत्काः। 5. पूर्व निरीक्षण-हर्ष या विषाद जब चरमावस्था पर पहुँच जाते हैं तब व्यक्ति अपने पूर्व जीवन का स्मरण करने लगता है। विरही जीवन के लिए तो पूर्वकृत स्मरण अँधे की लकड़ी के समान होता है। साहित्य की भाषा में इसे पृष्ठावलोकन शैली कहते हैं। यक्ष पूर्वकृत स्मरण कर ही जीवन धारण किए हुए हैं।
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