SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अश्रुवीणा का गीतिकाव्यत्व । २७ श्रद्धा का पात्र कोई सामान्य नहीं हो सकता। गोपियों के श्रद्धा पात्र कृष्ण हैं जो सार्वभौम अधिपति के रूप में स्वीकृत हैं। कालिदास की श्रद्धास्पदा विधाता की आद्या सृष्टि है। आचार्य महाप्रज्ञ के श्रद्धापात्र भगवान् महावीर है। श्रद्धा का निवास भी महाप्रज्ञ जैसे विरल-साधक में ही होता है-श्रद्धापात्रं भवति विरलस्तेन कश्चित्तपस्वी। 2. आत्माभिव्यक्ति-गीति-काव्य का कवि अलग से कुछ नहीं कहता है। अपने जीवन की सुख-दुःख की अनुभूति, अपने विश्वास और उद्देश्य को ही गीत के रसमय स्वरों में अभिव्यक्त करता है। कहा जाता कि कालिदास विरह की ज्वाला में जले थे। इसलिए उन्होंने यक्ष पर विरह-वेदना आरोपित कर मेघदूत की रचना की। जयदेव भक्त थे इसलिए अपनी शब्दाञ्जलियाँ प्रभु श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर उन्हीं के हो गए। कविमहाप्रज्ञ भी इसी सरणि में प्रतिष्ठित हैं। इन्होंने भगवान् महावीर के चरणों में व्याप्त अपनी अविच्छिन्न आस्था, श्रद्धा और समर्पण को चन्दना के आँसुओं के माध्यम से व्यक्त किया। कवि बार-बार चन्दना के आँसुओं के ब्याज से प्रभु चरणों में अपनी व्यथाकथा को समर्पित करता दिखाई पड़ रहा है। ऐसा लगता है कि विवेच्य कवि संसार के झंझावत से आहत हो चुका है। अनगिनत रथिकों के क्रूरकर्म से उसका हृदय विदीर्ण हो चुका है। यही तथ्य आँसुओं से चन्दना कह रही है। अन्तस्तापो वत भगवते सम्यगावेदनीयो, युष्मद्योगः सुकृत सुलभः संशये किंतु किंचित्। नित्याप्रौढ़ाः प्रकृतितरला मुक्तवाले चरन्तः, शीतीभूता ह्यपि च पटवः किं क्षमाभाविनोऽत्र ॥ 3. समर्पण की भावना - गीतिकाव्य में यह भावना बलवती होती है। उपास्य या प्रेमी के प्रति सब कुछ समर्पित कर दिया जाता है । कर्म-अकर्म सब कुछ समर्पित कर जब भक्त तदाकारत्व की स्थिति में आ जाता है तभी गीत का प्रस्फुरण होता है। वहाँ भौतिक-सम्पदाएँ निर्मूल्य हो जाती हैं। अपने हृदय को खोलकर रख दिया जाता है। यही तो उसका वैभव है। चन्दना कहती है-श्रद्धा के आँसू, प्रकृति की कोमलता, हृदय का उद्घाटन और आहे-ये नारी के वैभव हैं, इन्हें भी मैं प्रभु-चरणों में समर्पित कर चुकी हूँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy