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अश्रुवीणा का गीतिकाव्यत्व / २९ हर्षाधिक्य में भी ऐसी ही स्थिति होती है। दुःख के बाद सुख की प्राप्ति कितनी आनन्ददायक होती है-इसका अनुभव आचार्य महाप्रज्ञ जैसे सफल सचेतन कविको ही हो सकता है। भक्त नहीं जाते कहीं, आते हैं भगवान्' की उक्ति सफल हुई तो, चन्दनबाला अपने पूर्व जीवन का स्मरण कर दुःख के दिनों को याद कर गद्गद हो गयी 'प्रभु आ गए' अब कुछ प्राप्तव्य शेष नहीं रहा।
6. सुख-दुःख का द्वन्द्व-गीति-काव्य में आद्योपान्त सुख-दुःख का द्वन्द्व चलता रहता है। ऐसा इसलिए होता है कि कवि के व्यक्तिगत जीवन की अभिव्यक्ति ही गीति-काव्य का प्रधान तत्त्व होता है। कभी सुख और कभी दुः ख। यह सृष्टि का सार्वभौम विधान है। इसका काव्य में रसात्मक विनिवेशन ही गीति-काव्य का प्राण होता है । यक्ष अपनी प्रियतमा को आश्वासन देने के क्रम में सृष्टि के इस शाश्वत विधान का निरूपण करने लगता है
नन्वात्मानं वहुविगणयन् आत्मनि एवावलम्बेतत्कल्याणि! त्वमपि नितरां मा गमः कातरत्वम्। कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा,
नीचैर्गच्छति उपरिचदशा चक्रनेमिक्रमेण ॥ वह कभी अनिष्ट से इष्ट की प्राप्ति होने पर आनन्द का पात्र बन जाता है
इष्टे वस्तुन्युपचितरसाः प्रेमराशि भवन्ति ॥6
इष्टेऽनिष्टाद् व्रजति सहसा जायते तत्प्रकर्षो।
लब्ध्वाऽर्हन्तं प्रतिनिधिरिवाद्याऽऽवभौ सम्मदानाम् ।।" तो कभी सुख के बाद दुःख की प्राप्ति होने पर मूर्छा की भी सामना करनी पड़ती है। वहां केवल आंसू ही जीवनाङ्क होते हैं
वाणी वक्त्रान्न च बहिरगाद् योजितौ नापि पाणी, पाञ्चालीवाऽनुभवविकलान क्रियां काञ्चिदार्हत्। सर्वैरङ्गैः सपदि युगपन्नीरवं स्तब्धताऽऽप्ता, वाहोऽश्रूणामविरलमभूत् केवलं जीवनाङ्कः॥
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