________________ 168 / अश्रुवीणा व्याख्या-कवि यह स्पष्ट कर रहा है कि जिस वस्तु का सम्बन्ध हृदय से होता है वह तुच्छ होते हुए भी बहुमूल्य बन जाता है। काव्यलिंग अलंकार / विभावना, विशेषोक्ति और परिकर अलंकार। (99) भारं प्राप्य प्रकट-विपदां स्नेहभाजां वियोग, चिन्ताञ्चालं वहति बहुधा वाष्पधारा बहूनाम्। क्षुत्-क्षामायाः कथमपि घसेरग्रहाद् भिक्षुणाहि, श्रद्धाढ्याया नयन-सलिलं स्मार्यमद्यापि भूयः॥ अन्वय-प्रकर विपदम् भारम् स्नेहभाजाम् वियोगम् अलम् चिन्ताम् च प्राप्य बहुधा बहूनाम् वाष्पधारा वहति। भिक्षुणा घसेः कथमपि अग्रहात् श्रद्धाढ्यायाः क्षुत्क्षामायाः नयनसलिलम् अद्यापि भूयः स्मार्यम्। अनुवाद-उत्पन्न विपत्ति, स्नेहशील व्यक्तियों के वियोग एवं पर्याप्त चिन्ता को प्राप्त कर बहुत लोगों की विविध रूप से आँसुओं की धारा बहने लगती है। (उसे कौन याद करता है) परन्तु भगवान् द्वारा भोजन नहीं ग्रहण किए जाने पर उत्पन्न श्रद्धा से परिपूर्ण और क्षुधा से कृश चन्दनबाला के आँसूं आज भी बारबार स्मरण किए जाते हैं। व्याख्या-प्रस्तुत श्लोक में काव्यलिंग, विभावना, विशेषोक्ति, परिकर आदि अलंकारों का सुन्दर विनियोजन हुआ है। घसे:-ग्रास के, अग्रहात्-नहीं लेने पर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org