________________ अश्रुवीणा / 167 स्रोतसः। सा ऊर्ध्वम् पश्यन्ती पलमपि निम्नभावेषु न मूढा। अनुवाद-हाथ और पैरों का बन्धन लिन हो गया लेकिन आत्मा का बन्धन गूढ (कठोर) हो गया। उसके शरीर पर प. ल का सौन्दर्य खिल गया लेकिन आत्मा का सौन्दर्य नहीं निखरा / करुणापूर्ण आँखों की धारा (आँसूओ की धारा) समाप्त हो गयी लेकिन दुःख का प्रवाह समाप्त नहीं हुआ। वह चन्दनबाला ऊपर देखती हुई क्षणभर के लिए भी निम्न भावों (क्षणिक सुख, रत्नों की बरसात, क्षणिक हर्ष) में आसक्त नहीं हुई। व्याख्या-साधक जब तक अपनी साधना को पूर्ण नहीं कर लेता तब तक वह सदा अप्रमत्त बना रहता है। चन्दना के घर में रत्न की वर्षा हुई लेकिन वह आसक्त नहीं हुई, सदा भगवान् की ओर अपनी दृष्टि लगाए रही। विभावना, विशेषोक्ति, विरोधाभास आदि अलंकार हैं। उपचार वक्रता-वपुसि हसितम्। (98) पक्वान्नानि प्रचुर-विभवे भुक्तपूर्वाणि राज्ये, नानाहारश्चरण-पदवीं सेवमानस्य जातः / स्निग्धा दृष्टे नवजलकणैर्ह व्यथासंप्रसूतैरद्याप्युच्चैः स्मरणविषयाः केवलं सन्ति माषाः॥ अन्वय-प्रचुरविभवे राज्ये पक्वन्नानि भुक्तपूर्वाणि। सेवमानस्य नाना आहारश्चरणपदवीं जातः। हृदयव्यथा सम्प्रसूतैः दृष्टे: नवजल कणैः स्निग्धा माषाः अद्यापि उच्चैः स्मरणविषयाः केवलम् सन्ति। अनुवाद-प्रचुर धनधान्य सम्पन्न अपने राज्य में (दीक्षापूर्व) भगवान् महावीर ने पहले मिष्टान्न भोजन किया। दीक्षा सेवन करते हुए (दीक्षा लेने के बाद भी) नाना प्रकार के आहार-आचरण विधि को ग्रहण किया। परन्तु हृदय व्यथा से उत्पन्न आँखों के नव जल कणों से स्निग्ध उड़द ही केवल आज भी श्रेष्ठजनों के लिए स्मरण के विषय बने हुए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org