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________________ अश्रुवीणा / 163 अनुवाद-हर्षाधिक्य से प्रेरित होकर काँपते हुए, व्यथा की बूंदों से स्निग्ध एवं छाज के उड़द को लिए हुए दात्री (चन्दनबाला) के हाथो ने भगवान के दृढ़ बल से स्थिर अनुकम्पा युक्त एवं हृदय से सजल हाथों को छाज के उड़द को लिए हुए शीघ्र ही बना दिया। व्याख्या-भिक्षादान का सुन्दर वर्णन है। चन्दनबाला ने शीघ्र ही अपने हाथ में स्थिर उड़द को भगवान् के हाथों में समर्पित कर दिया। अनेक साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग है इसलिए परिकर अलंकार है। व्यथितपृषता=व्यथाकी बूंदें।रूपक अलंकार ।प्रमदविभव प्रेरणात्-प्रमदोहर्षः तस्य विभवेन धनेन आधिक्येन प्रेरणात्-प्रचोदनात् / (93) सद्योजातं स्थपुटमखिलं प्रांगणं रत्नवृष्ट्या, त्रुट्यद् बन्धं गगनपटलं जातमेतत् प्रतीतम् / तर्क क्षेत्रं भवतु सुतरामेष योगानुभावस्तद्भाग्याने रविरुद्गमत् स्पष्टमद्याऽपि तत्तु॥ अन्वय-रत्नवृष्टया अखिलम् प्रांगणम् सद्यः स्थपुटम् जातम् / गगनपटलम् त्रुट्यद्बन्धम् एतत् प्रतीतम् जातम् / एष योगानुभावः सुतराम् तर्कक्षेत्रम् भवतु। तत् भाग्याभ्रे रविः उद्गमत् तत् तु अद्यापि स्पष्टम्। अनुवाद-रत्नों की वृष्टि से चंदनबाला के घर का सारा आँगन ऊबड़खाबड़ हो गया। ऐसा प्रतीत हुआ कि आकाश के बन्धन टूट गए हों। यह योग का प्रभाव भले ही तर्क का विषय बने लेकिन उसके भाग्याकाश में सूर्य का उदय हुआ, यह आज भी स्पष्ट है। व्याख्या-चन्दनबाला का भाग्योदय हुआ। उसके घर में रत्नों की बरसात हो गयी। भाग्याभ्रे भाग्याकाशे। भाग्य रूप आकाश में-रूपक अलंकार / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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