________________ 164 / अश्रुवीणा गगनपटलम् त्रुट्यद्बन्धम्=आकाश के मानों बन्धन टूट गए हों-उत्प्रेक्षा अलंकार। रत्न वर्षा से प्रांगण स्थपुट =उबड़-खाबड़ हो गया-काव्यलिंग अलंकार। सद्यः, सुतराम, तु, अद्य, अपि आदि अव्यय पद हैं / साभिप्राय विशेषणों के प्रयोग से परिकर अलंकार है। (94) गाढामिच्छां बहु लसमयेऽपि प्रयत्नैरपूर्णा, ये जानन्ति स्वमतिरचितां ताड़ितां क्रूरविघ्नः। तेऽहाँ अत्रानुभवितुमिमां वेदनां चन्दनायास्तीवान् यत्नांलघु-विसृमरां चेतसोऽधीरताञ्च // अन्वय-बहुलसमये प्रयत्नैः अपि अपूर्णाम् स्वमतिरचिताम् क्रूरविघ्नैः ताड़िताम् गाढाम् इच्छाम् ये जानन्ति ते चन्दनायाः नीव्रान् यत्नान् इमाम् लघुविसृमराम् वेदनाम् चेतसोऽधीरताम् च अनुभवितुम् अर्हा। __ अनुवाद-बहुत समय से अनेक प्रयत्न करने के बाद भी अपूर्ण, अपनी मति से विरचित, क्रूर विघ्नों से पीड़ित तीव्र इच्छा (चन्दनबाला की तीव्र इच्छा) जो और शरीर में शीघ्र फैलने वाली इस वेदनाको तथाचित्त की अधीरता को अनुभव कर सकते हैं। व्याख्या-इस श्लोक में परिकर, काव्यलिंग, विभावना, विशेषोक्ति आदि अलंकार हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org