________________ 162 / अश्रुवीणा (91) अर्थाः केचिद् ददति सुमहत् किञ्चिदादाय पुण्याः, केचिद् दत्वाऽपि च न ददते व्यत्ययोऽसौ विधीनाम्। तत् पाणिभ्यां विनय-विशदं वस्तु लब्ध्वा नगण्यं, वस्तुवातैः प्रतिफलतया स्वामिनादाप्यगण्यम्॥ अन्वय-केचित् पुण्याः अर्थाः किञ्चित् आदाय सुमहत् ददति। केचिद् दत्वा अपि न ददते / असौ विधीनाम् व्यत्ययः। तत् पाणिभ्याम् विनय-विशदम् नगण्यम् वस्तु लब्ध्वा प्रतिफलतया वस्तुव्रातैः अगण्यम् स्वामिना अदायि। अनुवाद-कुछ शुभ पदार्थ थोड़ा लेकर बहुत देते हैं। कुछ देने पर भी कुछ नहीं देते हैं / यह विधि का उल्टा (विचित्र) नियम है। स्वामी चन्दनवाला के हाथ से विनय से पवित्र नगण्य (उड़दादि) वस्तु को लेकर प्रतिफल में ऐसी उत्कृष्ट वस्तु दे दी जिसकी गणना अन्य वस्तुओं से नहीं की जा सकती। व्याख्या-भगवान् श्रेष्ठ दानी हैं। थोड़ा लेकर उन्होंने चन्दनबाला को सब कुछ दे दिया। वस्तुवातै:-वस्तु समूहै :, पदार्थ समूह के साथ। अर्थान्तरन्यास अलंकार। प्रथम दो चरण में निबद्ध सामान्य का अंतिम दो चरणों के विशेष से समर्थन किया गया है। (92) पाणी दात्र्याः प्रमद-विभव-प्रेरणात्कम्पमानौ, स्निग्धौ क्वापि व्यथित पृषता माषसूपं वहन्तौ / आदातुस्तौ दृढतमबलात् सुस्थिरौ सानुकम्पो, सद्योऽकाष्टी हृदयसजली सूर्पमाषान् वहन्तौ // अन्यव-प्रमदविभवप्रेरणात् कम्पमाणौ व्यथितपृषतास्निग्धौ क्वापि माससूर्पम् वहन्तौ दात्र्याः पाणी तौ दृढ़तमृबलात् सुस्थिरौ सानुकम्पौ हृदयसजलौ सूर्पमाषान् बहन्तौ सद्यो अकाष्टाम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org