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________________ अश्रुवीणा / 159 (87) भक्त्युरेकात् स्मृतिमपि तनुं नाप्यकार्षीत् क्षुधाया, वाञ्छापूत्यै सघनमनसा स्थैर्यमालम्भि तस्याः। सन्देहे नाऽनुपलमुदयं गच्छताऽभूच्छ लथा वाक्, सर्वे सूक्ष्माः परमगुरुताऽभूत् प्रतीक्षा-क्षणानाम्॥ अन्वय-भक्त्युद्रेकात् क्षुधायाः तनुम् स्मृतिम् अपि न अका र्षीत् / तस्याः वाञ्छापूर्त्य सधनम् स्थैर्यम् आलम्भि। अनुपलम् उदयम् गच्छता सन्देहेन (तस्याः) वाक् श्लथाऽभूत् / प्रतीक्षाक्षणानाम् सर्वे सूक्ष्माः परम गुरुता अभूत्। - अनुवाद-भक्ति के उद्रेक से चन्दनबाला को क्षुधा की अल्प स्मृति भी नहीं रही। उसकी वाच्छापूर्ति के लिए (उसका) मन पूर्ण रूप से स्थैर्य (स्थिरता) को प्राप्त कर लिया। प्रतिक्षण उदित होने वाले सन्देह के कारण उसकी वाणी श्लथ (शिथिल) हो गयी। प्रतीक्षा क्षण में सभी सूक्ष्म वस्तुएँ भी परम गुरु, (लम्बी) बड़ी हो जाती है। व्याख्या- भक्ति के विविध सोपानों का वर्णन इस श्लोक में महाकवि ने किया है। भक्ति से क्षुधादि पीड़ा का लोप एवं मन की स्थिरता प्राप्त होती है। चन्दनबाला की भी यही दशा हो रही है। उद्रेकात् आधिक्यात् / तनुम्-अल्पम्। श्लथा-स्रस्ता अलसा वा। शिथिल, ढीला / काव्यलिंग एवं अर्थान्तरन्यास का सुन्दर उदाहरण है। (88) आपातेष्टं भवति बहुधाऽनिष्टमन्ते जनानां, पूर्वानिष्टं किमपि फलतः स्याद् विशिष्टार्थसिद्ध्यै। दानोत्साहः क्षण-परिणतोऽजायतापूर्वकोऽस्या, यत्रापूर्वाशय-परिणतिर्दुर्लभं तत्र किं स्यात् // अन्वय-बहुधा जनानाम् आपातेष्टम् अन्ते अनिष्टम् भवति / पूर्वानिष्टम् फलतः किमपि विशिष्टार्थसिद्धयै अभूत् / अस्याः दानोत्साह:अपूर्वको अजायत। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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