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________________ १५८ / अश्रुवीणा अथवा अप्रस्तुतों का एक धर्म कथन किया जाए तो तुल्य योगिता अलंकार होता है। यहाँ पर पृथ्वी, अनिल, भानु, गगन आदि पदार्थों का द्रष्टा के साथ एकधर्म कथन है। अर्थान्तरन्यास अलंकार भी है। (८६) शोषं पृथ्वी नयति पवनो वा द्रवं तापनोऽपि, व्योम्ना दिग्भिर्भूवनमखिलं स्वोदरे क्वापि नीतम्। वाणीमस्या अवितथपथां प्रस्तुतां स्वामिनोऽग्रे, नावातुं ते प्रकृतिविवशा लेभिरे वाचमर्हाम्॥ अन्वय-पृथ्वी पवनो तापनः वा द्रवम् शोषम् नयति । व्योम्ना दिग्भिः स्वोदरे अखिलम् भूवनम् क्वापि नीतम्। स्वामिनो अग्रे अस्याः प्रस्तुताम् अवितथपथाम् वाणीम् आह्वातुम् ते प्रकृतिविवशा अर्हाम् वाचम् न लेभिरे। अनुवाद-पृथ्वी, पवन अथवा सूर्य द्रव (तरल) वस्तु को सोखते हैं। आकाश और दिशाओं ने अपने उदर में सम्पूर्ण भूवन को छिपा दिया है । भगवान् महावीर के सामने चन्दनबाला की इस प्रकार कही गई सत्य वाणी को चुनौती देने के लिए ये स्वभाव से विवश (शोषण स्वाभाव वाले पृथ्वी आदि) उचित वाणी न प्राप्त कर सके। व्याख्या-व्यथित चन्दनबाला अपनी व्यथा को एक-एक कर भगवान् के सामने निवेदित कर रही है। प्रकृति जगत् के शोषण के ब्याज से महाकवि ने यह स्पष्ट किया है कि जो शोषण करने वाले लोग हैं शोषण करना उनका स्वभाव बन जाता है। चाहकर भी नहीं छोड़ सकते हैं। पृथ्वी पवन, तापन आदि का लेभिरे एक धर्म के साथ सम्बन्ध है। इसलिए तुल्ययोगिता अलंकार है। काव्यलिंग अलंकार भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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