________________ 160 / अश्रुवीणा यत्र अपूर्वाशय परिणतिः तत्र किम् दुर्लभम् स्यात्। अनुवाद-सामान्यत: मनुष्यों के लिए प्रारम्भिक काल (अथवा क्षणभर) में सुहावनी वस्तु अन्त में अनिष्टकारक बन जाती है। प्रथम ही प्राप्त अनिष्ट किसी विशिष्ट अर्थ की सिद्धि कराता है। चन्दनबाला का दानोत्साह (भिक्षा देने का उत्साह) क्षण भर में बढ़कर अपूर्व स्थिति को प्राप्त हो गया। जहाँ पर अपूर्व भावना (इरादा, इष्टप्राप्ति की इच्छा) प्रकट हो जाए वहाँ दुर्लभ क्या रह जाता व्याख्या-यहाँ पर कवि यह निर्देश कर रहा है कि जिसकी मानसिक संकल्प शक्ति बलवती हो गयी, उसके लिए संसार में किंचित् वस्तु भी अप्राप्य नहीं रहती। चन्दनबाला के पहले दुःख मिला जो अपूर्व सिद्धि, भगवतत्साक्षात्कार का कारण बना। आपातेष्टम्-क्षण भर या प्रारम्भ में इष्ट अर्थान्तरन्यास अलंकार / (89) आस्थाबन्धं लघु विदधतौ दादर्यभूमि-प्रतिष्ठ, हस्तौ शस्तौ यतिगणपतेः प्रस्तुतौ भिक्षितुं तौ। याभ्यां मासाः षडिव दिवसैः पञ्चभिः काममूना, भिक्षातीताः सजलमशनं यापिता विस्मरद्भ्याम्॥ अन्वय-दाद्यभूमि प्रतिष्ठम् आशाबन्धम् लघु विदधतौ यतिगणपतेः तौ शस्तौ हस्तौ भिक्षितुम् प्रस्तुतौ। सजलमशनम् याभ्याम् विस्मरद्भ्याम् इव पञ्चभिः दिवसैः ऊनाः षडमासा भिक्षातीताः यापिता। अनुवाद-दृढभूमि पर प्रतिष्ठित आशा के बन्धन को हल्का (शिथिल) करते हुए यतिगणपति (महावीर) के श्रेष्ठ हाथ भिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत हुए। वे हाथ पाँच मास पच्चीस दिन बिना भिक्षा के बिताए मानो अन्न और जल को विस्मृत कर दिए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org