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________________ १२४ / अश्रुवीणा निद्रा-निद्राणम् निद्रा। निन्दनम् निन्द्यतेऽनया इति वा। निपूर्वक द्रा कुत्सायाम् गतौ' धातु से आतश्चोपसर्गे (पा. 3.3.106) सूत्र से अङ् (अ) प्रत्यय। सोना, निंदासापन, आलस्य, मुकुलितावस्था, निमीलन आदि निद्रा के अर्थ हैं। आचार्य भरत ने दुर्बलता, क्लान्ति, श्रम, मदालस्य, चिन्ता, अति आहार एवं स्वभाव से निद्रा की उत्पत्ति मानी है। नाट्यशास्त्र 7.64 । पातञ्जलयोग सूत्र में निर्देश है कि जाग्रत और स्वप्नावस्था की वृत्तियों के अभाव को आश्रय करने वाल वृत्ति निद्रा है-अभाव प्रत्ययालम्बना वृत्ति निद्रा (यो.सू.1.10) जाग्रत स्वप्न और निद्रा-ये बुद्धि की तीन वृत्तियाँ हैं । सर्वार्थसिद्धि के अनुसार मद, खेद और परिश्रमजन्य थकावट को दूर करने के लिए नींद लेना निद्रा है मदखेदक्लमविनोदनार्थ स्वापो निद्रा-स.सि.8.7.383 । स्वप्न-स्वप् धातु से नक् प्रत्यय करने पर स्वप्न शब्द बनता है। जाग्रत अवस्था में अनुभूत विषय का निद्रा में ज्ञान स्वप्न कहलाता है। जिनभद्रगणि क्षमा श्रमण ने लिखा है-अनुभव किए हुए, देखे हुए, विचारे हुए, सुने हुए पदार्थ,वात, पित्त आदि प्रकृति के विकार, दैविक और जलप्रधान प्रदेश स्वप्न में कारण होते हैं। सुख निद्रा आने से पुण्य रूप और दुःख निद्रा आने से पाप रूप स्वप्न दिखाई देते हैं । स्वस्थ अवस्था में देखे गए स्वप्न सत्य एवं अस्वस्थ अवस्था वाले स्वप्न असत्य होते हैं। विवेच्य महाकवि श्रेष्ठ योगीराज हैं, योग के गहन तथ्यों का अन्वेषण और व्यावहारिक अनुभव में दक्ष हैं इसलिए इस श्लोक में योगदर्शन निर्दिष्ट बुद्धि के तीनों वृत्तियों जाग्रत, स्वप्न और निद्रा का वर्णन किया गया है। अर्थान्तरन्यास अलंकार है। पूर्व की अन्तिम पंक्ति (सूक्ति) से समर्थन किया गया है। सा निद्रा धन्या आदरेण्या श्रेष्ठावा या स्मृतिपरिवृढम्-स्मृतौ परिव्याप्तम् विद्यमानम् दानदीपनद्योतनगुणात्मकं देवमुपास्यम् भगवन्तं महावीर न निद्भुते स्मृति मार्गत् न अपवार्यतीव्यर्थः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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