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अश्रुवीणा / १२३ धारा चलती है कि उसकी दृष्टि भी विलुप्त हो जाती है। क्रूर विधाता को वह काल्पनिक मिलन भी सह्य नहीं हो सका। त्वामालिख्य प्रणयकुपितां धातुरागैः शिलाया
मात्मानं ते चरणपतितं यावदिच्छामि कर्तुम् । अस्रेस्तावन्मुहुरूपचितैर्दृष्टिरालुप्यते मे
क्रूरस्तस्मिन्नपि सहते संगमं नौ कृतान्तः।। (मेघदूत 2.45) अर्थान्तरन्यास अलंकार है। देहः सौक्ष्म्यात् में कारण कार्य भाव है इसलिए काव्यलिंग भी है।
(४९) धन्या निद्रा स्मृति-परिवृढं निहते या न देवं, धन्याः स्वप्नाः सुचिरमसकृद् ये च साक्षान्नयन्ते। जाग्रत्कालः पलमपि न वा त्वाञ्च सोढुं सहोऽभूच्छ्लाघ्योऽश्लाघ्यः क्वचिदपि न वैकान्तदृष्ट्या विचार्यः॥
अन्वय- धन्या निद्रा या स्मृतिपरिवृढं देवं न निहनुते। धन्याः स्वप्नाः ये च असकृत् सुचिरम् साक्षात् नयन्ते। जाग्रत कालम् पलमपि च त्वाम् न सोढुं सहः अभूत् । श्लाघ्य अश्लाघ्यः नवा क्वचिदपि एकान्त-दृष्टवा विचार्यः।
अनुवाद-निद्रा धन्य है जो स्मृति में व्याप्त देव को नहीं छिपाती है। ये स्वप्न धन्य हैं जो बार-बार बहुत देर तक साक्षात् तुम्हारे पास ले जाते हैं (तेरा साक्षात्कार कराते हैं) लेकिन यह जाग्रत काल क्षणभर भी तुमको सहन नहीं कर सका (साक्षात्कार नहीं कर सका)। श्लाघ्य और अश्लाघ्य के विषय में एकान्त दृष्टि से विचार नहीं किया जा सकता।
व्याख्या- विरह काल में प्राण-सहायक दो साधनों का उल्लेख महाकवि ने प्रस्तुत श्लोक में किया है-निद्रा और स्वप्न। निद्रा और स्वप्न में प्रिय का मिलन हो जाता है लेकिन जाग्रत काल में तो प्रिय आँखों के कोनों का विषय भी नहीं बनता है।
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