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१२२ / अश्रुवीणा
अनुवाद- श्रद्धालु व्यक्ति के पास उनके पूज्यों की श्रद्धा कल्पित आकृति (चित्र) भी नहीं होती (जिससे विरहकाल में सहायता मिल सके)। श्रद्धास्पद (पूज्य) जन (श्रद्धालु के दुःख को तो समाप्त करना तो दूर ही रहता है और) विरह में गिरे हुए (विरह से पीड़ित) श्रद्धालुओं के प्राणों का भी हरण करने लगते हैं (मृत्यु सदृश दुःख देने लगते हैं)। श्रद्धेय देह की स्थूलता के कारण बाहर विहार करता है। सबको दिखाई पड़ता है, लेकिन सूक्ष्म होने के कारण उसकी विशेष छाया केवल पवित्र ग्राहक में (पवित्र हृदय में ) ही पड़ती है।
व्याख्या- विरह काल में विरहियों के मनोविभेद के लिए अनेक साधन बताए गए हैं
1. चित्र-दर्शन 2. स्वप्न दर्शन 3. तदङ्क स्पृष्ट स्पर्श 4. प्रिय विषयक कथा श्रवण 5. कुशल संदेश 6. दूत-संप्रेषण 7. पूजा, ध्यान, साधना 8. प्रिय विषयक चिन्तन 9. मिलन की आशा 10. एकनिष्ठता 11. आत्मसंयम 12. उत्साह
अश्रुवीणा में यत्किंचित् को छोड़कर प्रायः सभी का उपयोग कवि ने किया है। विरहियों के लिए श्रद्धास्पद का चित्र, प्रिय की आकृति विरहकाल में मनोविनोद का साधन हुआ करती है, लेकिन महाप्रज्ञ के व्यथित श्रद्धालु के पास तो उसके अपने प्रिय का चित्र भी नहीं है । कालिदास का यक्ष येन-केन-प्रकारेण पत्थर पर प्रियतमा चित्र तो अंकित कर देता है लेकिन उसके आँखों से ऐसी
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