________________
अश्रुवीणा / १२५
(५०) नैराश्येन ज्वलति हृदये तापलब्धोद्भवानां, निःश्वासानां ध्वनिभिरुदितै-हिरे व्योम-मार्गाः। साकाराणि व्यथितमनसश्चक्रिरे वाचिकानि, नासंभाव्यं किमपि हि भवेद् पूतवंशोदयानाम्॥
अन्वय- नैराश्येन ज्वलति हृदये तापलब्धोद्भवानाम् नि:श्वासानाम् उदितैः ध्वनिभिः व्योममार्गा गाहिरे। व्यथितमनसः वाचिकानि साकाराणि च चक्रिरे। हि पूतवंशोद्यानाम् किमपि न असंभाव्यम् भवेद् ।
अनुवाद- निराशा से जलते हुए हृदय में संताप से जन्म ग्रहण किए हुए निः श्वासों (सिसकियों) से उत्पन्न ध्वनि द्वारा सम्पूर्ण आकाश परिव्याप्त हो गया। व्यथित मन वाली चन्दनबाला का संदेश साकार (सार्थक) हो गया क्योंकि पवित्र वंश में उत्पन्न व्यक्तियों के लिए कुछ भी असंभव नहीं होता है। ___ व्याख्या- महाकवि यहाँ निर्देश कर रहा है कि जिनका जन्म उत्कृष्ट वंश में हुआ है, वे कभी निष्फल नहीं होते हैं । चन्दना की सिसकियों का जन्म पवित्र
आँसुओ से हुआ है, इसलिए उसकी सफलता सुनिश्चित है। __ नैराश्येन ज्वलति हृदये-हतोत्साहेन आशाविनाशेन वा विदग्धे हृदये मनसि निराशा से ज्वलित हृदय में। काव्यलिंग अलंकार । जलने का कारण निराशा है। कारण कार्यभाव है। अर्थान्तरन्यास अलंकार भी है। अंतिम सूक्तिमूलक पद से पूर्व का समर्थन किया गया है।
व्योममार्गा: गाहिरे-आकाश व्याप्त हो गया। गाह् धातु लिट्लकार प्रथम पुरुष बहुवचन आत्मने पद का गाहिरे रूप बना है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org