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अश्रुवीणा / ९७
(२५) दृश्यं पुण्यं चरति सततं पादचारेण सोऽयं, तस्माद् भूमि सरत पुरतः पादयोर्नृत्यताऽपि। संश्लिष्यन्तो हृदयगह नस्पर्शिभावान् सजीवान, मार्गान्नातिव्रजति स यतस्तत्क्षणार्द्रान् सजीवान्॥
अन्वय- पुण्यम् दृश्यम् सोऽयं पादचारेण सततं चरति। तस्मात् भूमिं सरत पादयोः पुरतः नृत्यत अपि।सजीवान् हृदय गहनस्पर्शिभावान् सश्लिष्यन्तो । यतः स तत्क्षणार्द्वान् सजीवान् मार्गान् नातिव्रजति।
अनुवाद- आँसुओ ! यह पवित्र हृदय है । देखो। यह वह तपस्वी पैदल ही अहर्निश चलता है। इसलिए तुम भूमि पर जाओ और अपने सजीव और हृदय को गहन रूप से स्पर्श करने वाले भावों को साथ रखते हुए उसके पैरों के सामने नृत्य भी करो। क्योंकि वह तत्क्षण आई सजीव मार्ग का अतिक्रमण नहीं करता
___ व्याख्या- जीव सहित मार्ग अहिंसक महाव्रती के लिए अनुलंघनीय होता है, उसी प्रकार हृदय को स्पर्श करने वाले सजीव भाव भी अनतिक्रमणीय होते हैं। कवि कहता है कि हृदय में सजीव भावों के साथ की गई अभ्यर्थना कदापि निष्फल नहीं होती है।
पुण्यम् दृश्यम्-हे आँसुओ! देखो यह पवित्र दर्शनीय दृश्य को। संसारमुक्त परम पावन भगवान् पैदल जा रहे हैं। वे हमेशा पैदल ही चलते हैं।
सोऽयम् पादचारेण सततं चरति । वही यह भगवान् महावीर पैदल हमेशा चलते हैं। पादचारेण पैदल, पैरों के द्वारा चलना-मेघदूत 1.60 में प्रयुक्त क्रीडाशैले यदि च विचरेत् पाद चारेण गौरी । रघुवंश 11.10 में पाद चारमपि।
तस्माद् भूमिं सरत-इसलिए भूमि पर ही जाओ। सृ-गतौ धातु से बना है। विधिलिङ् आत्मनेपद प्रथम पुरुष एकवचन।
इस श्लोक में काव्यलिंग, अर्थान्तरन्यास एवं स्वभावोक्ति अलंकार है।
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