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९६ / अश्रुवीणा
इस श्लोक में पर्याय, परिकर, काव्यलिंग आदि अलंकार हैं । एक भगवान् के अनेक रूपों - जाते हुए, पुण्यकर्मों से प्राप्त, तपस्वी आदि का चित्रण हुआ है। इसलिए पर्याय अलंकार है - एकं क्रमेणानेकस्मिन्पर्यायः काव्यप्रकाश 10.117।
(२४)
चित्रा शक्तिः सकलविदिता हन्त युष्मासु भाति, रोद्धं यान्नाक्षमत पृतना नापि कुन्ताग्रमुग्रम्। खातं गा गह नगहनं पर्वतश्चापगाऽपि, मग्नाः सद्यो बहति विरलं तेऽपि युष्मत्प्रवाहे ॥
अन्वय- हन्त युष्मासु चित्राशक्तिः भाति सकल विदिता यान् न पृतना न उग्रम् कुन्ताग्रम् अपि न गहनगहनम् खातं गर्ता पर्वतः आपगा अपि च रोद्धं न क्षमत। ते अपि युष्मत् विरलं प्रवाहे सद्यो मग्नाः बहति।
अनुवाद- आश्चर्य ! आँसुओं! तुम्हारे अन्दर अद्भुत शक्ति सुशोभित है (विद्यमान है) यह सभी जानते हैं । जिनको न सेना, न उग्र अग्र भाग वाले भाले, न गंभीर से गंभीर खाई (परिखा), न गर्त (गुफा) न पर्वत और न नदियाँ रोकने में समर्थ हैं। वे भी तुम्हारे विरल प्रवाह में शीघ्र ही मग्न होकर बह जाते हैं।
व्याख्या- इस श्लोक में कवि आँसुओं की अद्भुत शक्ति का वर्णन कर रहा है। जो संसार का जेता है, परीषहों के भयंकर तूफान में भी अडोल रहता है, वह भी आँसुओं के प्रवाह में बह जाता है।
हन्त-प्रसन्नता, हर्ष और आकस्मिक हलचल को प्रकट करने वाला अव्यय ।
इस श्लोक में उदात्त अलंकार है। जहाँ वस्तु की समृद्धि का वर्णन हो वहाँ उदात्त होता है। यहाँ आँसुओं की उत्कृष्ट शक्ति, समृद्धि एवं सामर्थ्य का वर्णन किया गया है।
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