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अश्रुवीणा / ९५ अनुवाद-आँसुओं! शीघ्र जाओ। देखो यह तपस्वी जा रहा है । मुझे साक्षात् प्राप्त हुआ था। जो संचित सत्कर्मों से प्राप्त होने योग्य है । आँसुओं! तुम्हारे समूह को (तुम्हें) प्राप्त कर अकेला व्यक्ति विपत्ति के भार से मुक्त हो जाता है। जहां पर अन्य कोई शरण नहीं होता वहाँ तुम्हीं सहायक होते हो।
व्याख्या- यहाँ आँसू की शक्ति एवं सामर्थ्य तथा भगवान् महावीर का स्वरूप वर्णित है । आँसुओं के द्वारा दौत्य कार्य कवि कल्पना का अनूठापन है। प्राचीन काल से ही अनेक कवियों ने दूतकाव्य की रचना की है। ऋग्वेद में रात्रि के द्वारा दौत्य कार्य कराने का उल्लेख मिलता है । वाल्मीकी रामायण में हनुमान रामदूत के रूप में सीता के पास संदेश लेकर जाते हैं। कालिदास के मेघदूत में नायक यक्ष अपनी प्रियतमा के पास मेघ को दूत बनाकर अपने संदेश प्रेषित करता है। जैन परम्परा में भी अनेक ग्रंथ विरचित किए गए जिसमें दौत्यकार्य का वर्णन है। सांगणपुत्र कवि विक्रम कृत (13वीं शती) नेमिदूत में नायक की ओर से नायिका के पास ब्राह्मण को दूत के रूप में भेजा गया है। चारित्रसुन्दरगणिकृत शीलदूत में शील जैसे भावात्मक तत्व को दूत बनाया गया है । भट्टारक वादिचन्द्र (7वीं शती) के पवनदूत में पवन दूत के रूप में वर्णित है। आचार्य महाप्रज्ञ ने आँसू को दूत बनाया है।
जो कार्य महाशक्ति सम्पन्न व्यक्ति नहीं कर सकता उस कार्य को आँसू सहजतया सम्पन्न कर देते हैं। उनकी पवित्रता उनका सामर्थ्य, जगत्प्रसिद्ध है।
परिचितवृषैः प्रापणीयः – वह तपस्वी संचित सुकर्मों, पुण्यकर्मों से ही प्राप्तव्य है। जब शुभ, परम शुभ का उदय होता है तभी प्रभु का आगमन होता
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परिचितवृषैः - संचित पुण्यकर्मों के द्वारा।
परिचित - परि उपसर्गपूर्वक चिञ्चयने धातु सेक्त प्रत्यय । एकत्रित किया हुआ, इकट्ठा किया हुआ, संचित किया हुआ।
वृष-गुण, सत्कर्म, पुण्यकार्य। न सदगतिः स्याद् वृषवर्जितानाम्-कीर्ति कौमुदी 9.62
सार्थम् - साथ, समूह । आँसुओं के साथ को प्राप्त कर दु:खी व्यक्ति दुःखमुक्त होता है, हृदय की कलुषता समाप्त हो जाती है।
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