________________
९४ / अश्रुवीणा
साशयं करुणं निदध्यौ-आशा और करुणा से परिपूर्ण होकर देखा। निदध्यौ-देखा।
नि उपसर्गपूर्वक ध्यै चिन्तायाम् धातु का लिट् लकार प्रथम पुरुष एक-वचन में 'निदध्यौ' बना है।
स्फुरित जवना-स्फुरित तेज से परिपूर्ण । चन्दनबाला का विशेषण। जवन शब्द के स्त्रीलिंग में जवना।
वाष्पान् आँसुओं को। वाष्प आँसू, भाप। (वाष्पमूष्माश्रु-अमरकोश 3.3.130)
भ्वादिगणीय ओवै-शोषणे(वै) धातु से वाष्प बनता है। वा गतिबन्धनयोः धातु से भी इसकी सिद्धि मानी जाती है।
खष्प शिल्प शष्द वाष्प रूप पर्पतल्पाः (पा. 5.315) से निपातन से सिद्ध होता है। बाध धातु से सिद्धान्त कौमुदी कारने माना है बाधते षः, घष तथा प प्रत्यय-वाष्प अथवा बाष्प बनता है। इस श्लोक में काव्यलिंग, पर्याय आदि अलंकार हैं। ___चन्दना के अनेक रूपों-मूर्च्छित, दिग्भ्रमित एवं आँसुओं को पुकारती हुई आदि का चित्रण है इसलिए पर्याय अलंकार है।
(२३) वाष्पाः! आशु व्रजत नयतेक्षध्वमेष प्रयाति, साक्षात्प्राप्तः परिचितवृषैः प्रापणीयस्तपस्वी। सार्थञ्चैकोऽनुभवति विपद्भारमोक्षञ्च युष्मांल्लब्ध्वा नान्यो भवति शरणं तत्र यूयं सहायाः॥
अन्वय- वाष्पाः आशु व्रजत । नयतेक्षध्वम् एष तपस्वी प्रयाति । साक्षात्प्राप्त: परिचितवृषैः प्रापणीयः।युष्मान् सार्थं लब्ध्वा एको विपद्भारमोक्षञ्च (प्राप्नोति) यत्र अन्यो शरणं न भवति तत्र यूयं सहायाः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org