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________________ ९८ / अश्रुवीणा (२६) स्मर्तव्यं तद् यतिपतिरसौ पूतभावैकनिष्ठो, ने यस्तस्मादृ जुतमपथैः पावनोत्सप्रतीतिम् । साहाय्यार्थ हृदयमखिलं सार्थमस्तु प्रयाणे, तस्योद्घाटः क्षणमपि चिरं कार्यपाते न चिन्त्यः॥ अन्वय- स्मर्तव्यम् तद्असौ यतिपतिः पूतभावैक निष्ठो तस्मात् ऋजुतमपथैः पावनोत्सप्रतीतिम् । नेयः (नव) प्रयाणे साहाय्यार्थ अखिलम् हृदय सार्थम् अस्तु। कार्यपाते तस्योद्घाटः क्षणमपि चिरम् न चिन्त्यः। अनुवाद- आँसुओ! स्मरण रखना कि वह यति पति पवित्रता के भाव में एकनिष्ठ हैं, (पवित्रता में ही विश्वास करते हैं।) इसलिए अत्यन्त सरल मार्ग से अपने पवित्र उत्स (जन्म स्रोत) की प्रतीति कराना। तुम्हारे प्रयाण में सहायता के लिए मेरा सम्पूर्ण हृदय साथ हो। कार्य पड़ने पर उस हृदय के उद्घाटन में क्षण मात्र भी देर या विलम्ब नहीं करना। व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक में उपचारवक्रता का सुन्दर उदाहरण है। हृदय सहायक कैसे हो सकता है ? उसका उद्घाटन कैसे किया जा सकता? सहायक होना और उद्घाटन करना किसी मूर्त पदार्थ का धर्म है। यहाँ पर कवि का कौशल एवं चातुर्य द्योतित है । अन्य के योग्य तथ्य का अन्य पर आरोप शब्द विच्छित्ति एवं भाव लावण्य को अभिव्यंजित करना है। हृदय के भाव या हृदय के योग के बिना अपने उपास्य या प्रियतम की प्राप्ति नहीं हो पाती है। यति पति एवं पूतभावैकनिष्ठ ये दोनों महावीर के लिए साभिप्राय विशेषण हैं इसलिए परिकर अलंकार है। स्मर्तव्यम् नेयः, तक काव्यलिंग अलंकार है। यतिपतिः - यतियों के स्वामी । यतियों में श्रेष्ठ। यति-संयमि, विजितेन्द्रिय। ये निर्जितेन्द्रियग्रामा यतिनो यतयश्च ते __ - अमर. 2.7.43 जो इन्द्रिय विषयों से उपरम (विरत) हो चुका है । वह यति है । अमरकोशकार ने यति को निर्जितेन्द्रियग्राम कहा है। ऐसे संयमियों के स्वामी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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