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अश्रुवीणा / ९१
(२१) वाणी वक्त्रान्न च बहिरगाद् योजितौ नापि पाणी, पाञ्चालीवाऽनुभवविकला न क्रियां काञ्चिदार्हत्। सर्वैरङ्गैः सपदि युगपन्नीरवं स्तब्धताऽऽप्ता, वाहोऽश्रूणामविरलमभूत् केवलं जीवनाङ्कः॥
अन्वय- वक्त्रात् वाणी बहिः न अगाात्। न च पाणी अपि योजितौ। पाञ्चालीवानुभवविकला न कांचित् क्रियाम् आर्हत् । सर्वैरङ्गैः युगपत् नीरवं स्तब्धताप्ता। अश्रूणाम् वाहो अविरलम् अभूत् केवलम् जीवनाङ्कः।
अनुवाद- (भिक्षा ग्रहण किए बिना भगवान् के लौट जाने पर चन्दन बाला की) वाणी मुख से बाहर नहीं निकल पायी और न ही हाथ ही जुड़ पाए। वह गुड़िया के समान अनुभव विकल हो गयी। आँसुओं का प्रवाह अविरल हो गया (झर-झर बहने लगा)। केवल आँसुओं का प्रवाह ही जीवन का चिन्ह था।
व्याख्या-दुःख के बाद सुखानुभूति अत्यन्त श्रेयस्कर एवं प्रिय होती लेकिन सुख के बाद मिला हुआ दुःख कितना भयावह होता है - इसका चित्रण महाकवि ने प्रस्तुत श्लोक में किया है। भगवान् द्वारा इच्छापूर्ति किए बिना लौट जाने के बाद चन्दनबाला की क्या दशा होती है - इसका चित्रण सुन्दर हुआ है। सारी वृत्तियाँ स्थगित हो गईं। स्तंभित होने पर सारी बाह्य वृत्तियां समाप्त हो जाती हैं। आचार्य भरत ने स्तब्धता को स्तंभ कहा है। शरीर में जड़ता का आना चेष्टा का निरोध स्तंभ है। यह अवस्था भय, शोक, विवाद, विस्मय आदि के कारण उत्पन्न होती है-हर्ष भयशोक विस्मयविदषारोषादिसंभवः स्तंभ:-नाट्यशास्त्र 7.96 स्तम्भस्चेष्टाप्रतिघातोहर्षभयादिभिः
साहित्यदर्पण 3.136 इस श्लोक में अनुप्रास, उपमा, काव्यलिंग आदि अलंकार हैं। संकर एवं संसृष्टि का भी सुन्दर संयोजन हुआ है।
वाणी वक्त्रात् न बहिरगात्- भगवान् के लौटने से उत्पन्न शोक के कारण वाणी बाहर नहीं निकल पायी।
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