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________________ ९२ । अश्रुवीणा कारण-कार्यभाव होने के कारण काव्यलिंग अलंकार है। अनेक वर्गों की आवृति से अनुप्रास है । काव्यलिंग और अनुप्रास का नीर क्षीरन्याय से उपस्थिति है। इसलिए संकर अलंकार है। पाञ्चालीवानुभवविकला-गुड़िया के समान अनुभव विकल। बहुत सुन्दर उपमान (गुड़िया) का प्रयोग। वाणी-शब्द, ध्वनि, भाषा। ब्राह्मी तु भारती भाषा गीर्वाग्वाणी सरस्वति अमरकोश (1.6.1) वण्यते इति वाणी। वण शब्दे (भ्वादिगण) धातु से इञ् और ङीष् प्रत्यय करने पर बनता है। वक्त्रात्=मुख से। वक्त्र शब्द का पंचमी एकवचन । वक्ति अनेन । वच् धातु से करण में ष्ट्रन् प्रत्यय करने पर वक्त्र बना। मुख, चेहरा आदि का वाचक है। प्रस्तुत संदर्भ में मुख अर्थ है। अंक-चिन्ह, लक्षण। (२२) मूछों प्राप्य क्षणमिह पुनर्लब्धचित्तोदयेव, दिक्षु भ्रान्ता दशसु करुणं साशयं सा निदध्यौ। नाश्वासाय व्यथितहदया प्राप कञ्चिद् द्वितीयं, सद्यः सिद्धयै स्फुरितजवनाऽऽमन्त्र्य वाष्पानुवाच॥ अव्यय- इह क्षणम् मूच्र्छा प्राप्य पुनःलब्धचितोदया इव दशसु दिक्षु भ्रान्तासा साशयं करुणं निदध्यौ । व्यथितहृदया कञ्चिद् द्वितीयं आश्वासाय न प्राप। सद्यः सिद्धयै स्फुरित जवना वाष्पान् आमन्त्रय उवाच। अनुवाद- यहां पर (इस अवस्था में) क्षण भर मूर्छा को प्राप्त कर पुनः चेतना युक्त जैसी हो गयी। दशों दिशाओं में भ्रान्त (वह चन्दनबाला) ने आशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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