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९० / अश्रुवीणा
जैसे-मेघ पीड़ित जनों की पीड़ा को दूर किए बिना आगे निकल जाता है वैसे ही श्रद्धापात्र श्रद्धालुओं की इच्छापूर्ति किए बिना आगे निकल जाते हैं।
अचिरम् - शीघ्र, जल्दी, त्वरित रूप से
(२०)
किञ्चिन्नोक्तं न खलु मृदुलाऽपैक्षि तद्भावनाऽपि, श्रद्धाविष्टं नयनमनसोश्चापलं नाप्यलोकि । भिक्षादानोच्चलितकर यो नुकम्पाऽप्यकारि, देवार्येण प्रतिगतमिति द्वारदेशोपकण्ठम् ॥
अन्वय - किञ्चित् न उक्तम्। न खलु तद् मृदुला भावना अपि अपैक्षि। श्रद्धाविष्टं नयनमनसोश्चापलं अपि न अलोकि। भिक्षादानोच्चलितकरयोः न अनुकम्पा अपि अकारि। देवार्येण द्वारदेशोपकण्ठम् प्रतिगतम् इति।
अनुवाद- भगवान् महावीर ने चंदनबाला से कुछ न कहा। न उसकी मृदुल भावना को आँका। श्रद्धा से युक्त आँख और मन की चंचलता को भी नहीं देखा। न ही भिक्षा देने के लिये आगे बढ़े हुए हाथों के ऊपर कृपा की। (भिक्षा लिए बिना भगवान्) द्वार के निकट से लौट गए (क्योंकि चंदन बाला के आँखों में आँसू नहीं थे)।
व्याख्या- भगवान् ने विशिष्ट संकल्पों को धारण किया था (द्रष्टव्य श्लोक-8) जिनमें आँसुओं की विद्यमानता भी एक संकल्प था।
चंदनबाला के आखों में आँसू नहीं थे इसलिए भगवान् लौट गए। आशा महल देखते ही देखते ढह गया। इसमें स्वभावोक्ति अलंकार है।
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