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७४ : एसो पंच णमोकारो
हम सब कुछ निर्विघ्नरूप से सम्पन्न करना चाहते हैं, अपनी शक्ति के द्वारा सब कुछ सिद्ध कर लेना चाहते हैं, किन्तु अन्तराय के परमाणु हमारे मार्ग में इतने अवरोध पैदा कर देते हैं कि हम कुछ नहीं कर पाते।
आवरण, विकार और अन्तराय—इन तीन महान् बीमारियों की चिकित्सा के लिए हमने तीन आलंबन लिये हैं—प्रेक्षा, अनुप्रेक्षा और मंत्र की आराधना। हम प्रेक्षा के द्वारा आवरण को मिटाते हैं, अनुप्रेक्षा के द्वारा मूर्छा, मोह और विकार को नष्ट करते हैं और मंत्र की आराधना के द्वारा
अन्तराय को मिटाते हैं। प्रश्न होता है कि क्या प्रेक्षा के द्वारा इन तीनों की चिकित्सा नहीं हो सकती ? हो सकती है, किन्तु पूरी नहीं हो सकती, अधूरी होती है। यही बात अनुप्रेक्षा और मंत्र की आराधना के लिए है। ये तीनों विशेष पद्धतियां हैं और विशेष रोगों के लिए हैं, जैसे चिकित्सा के क्षेत्र में जाने वाला चिकित्सा-सम्बन्धी सारा ज्ञान करता है किन्तु किसी एक विषय में निष्णातता भी प्राप्त करता है। वह सभी रोगों का चिकित्सक है, किन्तु एक विशेष रोग की चिकित्सा का विशेषज्ञ है। यही प्रेक्षा, अनुप्रेक्षा और मंत्र-आराधना के लिए लागू होता है। ये अध्यात्म की प्रत्येक बीमारी की चिकित्सा में काम आ सकते हैं, किन्तु विशेष रोगों की विशेष चिकित्सा है।
कर्मशास्त्र के अनुसार प्रत्येक कर्म बंध के कारण अलग-अलग हैं, कोई व्यक्ति ज्ञान या ज्ञानी पुरुष की अवहेलना करता है तो मुख्यतः उसके ज्ञानावरण कर्म का बंध होता है। प्रश्न हो सकता है कि क्या उसके अन्य कर्म का बंध नहीं होता ? अन्य कर्म भी बंधता है, किन्तु बंध का बहुत बड़ा भाग ज्ञान के आवरण में चला जाता है, दूसरे कर्मों को थोड़ा-थोड़ा हिस्सा मिलता है। जिस प्रकार का हमारा आचरण होता है उससे सम्बद्ध कर्म का बड़ा बंध होता है और थोड़ा-थोड़ा बंध अन्य कर्मों का भी होता है। उसे तोड़ने के लिए भी हमें इसी प्रक्रिया से गुजरना होगा। जिस कर्म विशेष को हमें तोड़ना है, उस कर्म को बांधने के जो उपाय हैं उनके प्रतिकूल उपायों से ही हम उसे तोड़ सकते हैं। अन्तराय को तोड़ने के लिए, शक्ति का विकास करने के लिए, ऊर्जा का विकास करने के लिए, मंत्र की आराधना बहुत उपयोगी होती है। इसीलिए हम भावना, मंत्र, अनुप्रेक्षा और प्रेक्षा—इस समन्वित पद्धति का उपयोग करते हैं। जो आदमी रुग्ण होता है, उसकी चेतना, उसकी स्वस्थता, उसकी निर्विकारता, उसकी शक्ति पूरा
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